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अनेकान्त/3
पार्श्व-महावीर-बुद्ध युग के सोलह महाजनपद
-डॉ. गोकुल प्रसाद जैन पार्श्व-महावीर-बुद्ध युग श्रमण संस्कृति का पुनरुत्थान युग माना जाता है। इस युग में जैन संस्कृति की व्यापक प्रभावना विद्यमान थी। इस युग का आरंभ 1100 ईसा पूर्व से माना जा सकता है। ___1500 ईसा पूर्व से 1100 ईसा पूर्व तक भारत के मूल निवासी श्रमणों के साथ आर्यों के घोर सैनिक संघर्षों के पश्चात् अन्ततोगत्वा आर्यों की भारत पर सैनिक विजय हुई। आर्य लोग इसके पूर्व यूनान और मध्य एशिया पर भी अपनी विजय स्थापित कर चुके थे। आर्यों की विजय से इन क्षेत्रों में भी हजारों वर्ष पुरानी पूर्ण विकसित श्रमण संस्कृति और सभ्यता संपूर्णतया नष्ट-भ्रष्ट हो गई। तीन-तीन आर्य श्रमण दीर्घकालिक महायुद्धों और उनसे सम्बद्ध अनेकानेक संघर्ष हुए।
प्रथम आर्यश्रमण (जैन) महायुद्ध 1300 ईसा पूर्व से 1185 ईसापूर्व के मध्य लड़ा गया, जिसमें आर्यों की विजय हुई। द्वितीय आर्य-श्रमण (जैन) महायुद्ध 1200 ईसा पूर्व से 1140 ईसा पूर्व के मध्य हुआ, जिसमें भूमि पर युद्धों के साथ-साथ नौसैनिक युद्ध भी हुए। ये नौ सैनिक युद्ध तत्कालीन श्रमणतन्त्रीय पणि (जैन) जनपदों, अर्थात् मोहनजोदडो जनपद, अर्बुद जनपद, क्रिवी जनपद आदि अनेक पणि जनपदों के साथ हुए। इनमें भी आक्रमणकारी आर्य सेनायें ही विजयी हरीं। तृतीय आर्य श्रमण महासमर 1140 ईसा पूर्व से 1100 ईसा पूर्व तक चला। इस महासमर में दाशराज्ञ युद्ध सर्वाधिक महत्वपूर्ण है जिसमें दस भारतीय तत्कालीन श्रमण (जैन) जनपदों ने, अर्थात् पुरु जनपद, अनुजनपद, द्रुहयु जनपद, यदु जनपद, शिग्रु जनपद ओर यक्ष जनपद, इन दस जैन जनपदों ने मिलकर भारतों के नाम से (जिनके नामकरण का आधार प्रथम तीर्थंकर ऋषभ के पुत्र चक्रवर्ती सम्राट् भरत थे) ने संघ महाजनपद बनाकर विश्वामित्र के प्रधान सेनापतित्व में सुदास, इन्द्र और आर्यों के महासेनापित वशिष्ट के साथ युद्ध लड़ा था। उमसें भी अन्ततोगत्वा आर्य सेनायें विजयी रहीं तथा 1100 ईसा पूर्व में आर्य लोग उदीच्य (पश्चिम) भारत के सत्ताधारी और शासक बन गये।
इन दीर्घकालीन महायुद्धों के कारण भारत में विद्यमान तत्कालीन प्रागार्य जनपद व्यवस्था पूर्णतया तहस-नहस हो गई तथा लगभग 100 वर्ष की अस्थिरता के पश्चात् 800 ईसा पूर्व के लगभग उनकी अनेक परिवर्तनों के साथ, पुनः जनपदों
1. Jay: The Original Nucleus of Mahabharat, Ram Chandra Jain (A world famous historian) Agalm Kala Prakashan Dethl; 1979 Page 257.