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अनेकान्त/2
व्रती सम्मेलन में आचार्य श्री सूर्यसागर महाराज के उद्गार
आज का व्रतीवर्ग चाहे मुनि हो चाहे श्रावक, स्वच्छन्द होकर विचरना चाहता है यह उचित नहीं है। मुनियों में तो उस मुनि के लिए एकाविहारी होने की आज्ञा है जो गुरु के सान्निध्य में रहकर अपने आचार-विचार में पूर्ण दक्ष हो तथा धर्म प्रचार की भावना से गुरु जिसे एकाकी विहार करने की आज्ञा दे दें। आज यह देखा जाता है कि जिस गुरु से दीक्षा लेते हैं उसी गुरु की आज्ञा पालन में अपने को असमर्थ देख नव दीक्षित मुनि स्वयं एकाकी विहार करने लगते हैं । एकाविहारी होने पर किसका भय रहा? जनता भोली है इसलिए कुछ कहती नहीं, यदि कहती है तो उसे धर्म - निन्दक आदि कहकर चुप कर दिया जाता है। इस तरह धीरेधीरे शिथिलाचार फैलता जा रहा है। कोई ग्रंथमालाओं के संचालक बने हुए हैं। तो कोई ग्रन्थ छपवाने की चिंता में ग्रहस्थों के घर घर से चन्दा माँगते फिरते हैं । किन्हीं के साथ मोटरें चलती हैं तो किन्हीं के साथ ग्रहस्थजन दुर्लभ, कीमती चटाइयाँ और आसन पाटे तथा छोल दारियां चलती हैं । त्यागी, ब्रह्मचारी लोग अपने लिए आश्रय या उनकी सेवा में लीन रहते हैं। 'बहती गंगा में हाथ धोने से क्यों चूकें' इस भावना से कितने ही विद्वान् उनके अनुयायी बन आँख मीच चुप बैठ जाते हैं या हॉ मिलाकर गुरु भक्ति का प्रमाण-पत्र प्राप्त करने में संलग्न रहते हैं। ये अपने परिणामों की गति को देखते नहीं हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस उद्देश्य से चारित्र ग्रहण किया है उस ओर दृष्टिपात करो और अपनी पद्धति को निर्मल बनाओ। उत्सूत्र प्रवृत्ति से व्रत की शोभा नहीं ।
त्यागी को किसी संस्थाबाद में नहीं पडना चाहिए। यह कार्य गृहस्थों का है 1 त्यागी को इस दल से दूर रहना चाहिए। घर छोडा व्यापार छोड़ा, बाल बच्चे छोडे इस भावना से कि हमारा कर्तृत्व का अहंभाव दूर हो और समता भाव से आत्मकल्याण करें पर त्यागी होने पर भी वह बना रहा तो क्या किया ? इस संस्थावाद के दलदल में फँसने वाला तत्व लोकेषणा की चाह है। जिसके हृदय में यह विद्यमान रहती है वह संस्थाओं के कार्य दिखाकर लोक मे अपनी ख्याति बढाना चाहता है। पर, इस थोथी लोकेषणा से क्या होने जाने वाला है ? जब तक लोगों का स्वार्थ किसी से सिद्ध होता है तब तक वे उसके गीत गाते हैं और जब स्वार्थ में कमी पड जाती है तो फिर टके को भी नहीं पूछते । इसलिए आत्मपरिणामों पर दृष्टि रखते हुए जितना उपदेश बन सके, उतना त्यागी दे, अधिक की व्यग्रता न करे ।
- 'मेरी जीवन गाथा से'