________________
अनेकान्त/32
रावण का द्वन्द्व युद्ध और जिन-पूजा
-जस्टिस एम. एल. जैन आठवीं सदी के अपभ्रंश भाषा के जैन कवि स्वयंभू ने अपने महाकाव्य पउम चरिउ मे कल्पना का नया संसार खड़ा कर अपने ही ढंग से एक विभिन्न रूप में राम कथा की रचना की है। ताज्जुब है कि इस अमर काव्य की कथा वस्तु
और काव्य कला की ओर इतना ध्यान नहीं दिया गया जितना दिया जाना अपेक्षित लगता है। कालिदास अपने उपमा अलंकार संयोजन के लिए मशहूर हैं किंतु पउम चरिउ में पद-पद पर अनौखी और अभूतपूर्व उपमा अलंकारों का एक अपना अलग ही आलम है।
तो, आइए.. भारतीय ज्ञान पीठ, काशी से 1957 में प्रकाशित श्री देवेन्द्रकुमार द्वारा संपादित अनुवादित पांच भागों के पउम चरिउ के प्रथम भाग के विद्याधर काण्ड की बारहवीं व तेरहवीं संधियों के दो प्रसंगों का पौराणिक, धार्मिक व साहित्यिक काव्य रस का तनिक रसास्वादन किया जाए।
प्रसंग यों है कि एक दिन अपने दरबारियों से रावण ने पूछा, 'बताओ मनुष्य और विद्याधरों में अब कौन मेरा शत्रु है ?' इस पर किसी दरबारी ने कहा
किष्किंध पुरिहिं करि पवर भुउ णामेण बालि सूररव - सुउ। जा पारिहच्छि मई दिट्ट तहों। सा तिहुयणे थउ अण्णहों णरहों। रह वाहेवि अरूणु हय हणेवि पुणु जा जोयणु विण पावइ। ता मेरुहि भवि जिणवरु णवेंवि
तहिं जें पडीवउ आवइ। (किष्किंधापुर-नरेश सूर्यरव के पुत्र बालि में मेंने जैसा वेग देखा, वैसा तीनों लोकों में किसी भी व्यक्ति में नहीं देखा। उसके बाहु हाथी के सूंड के समान प्रचंड हैं। वह अपने अरूण रथ को हांककर घोड़ों को ताडित कर आंखों के पलक झपने के पहले ही मेरू कीप्रदक्षिणा और जिनवर की वंदना कर अपने घर लौट आता
यह सुनकर कुछ समय पश्चात् रावण ने बालि केपास दूत भेजा और कहलवाया कि 20 पीढियां हुईं तुम्हारी हमारी दोस्ती चली आ रही है, अहंकार