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________________ अनेकान्त/20 नामक चतुर्थ बाह्मतप का वर्णन करते हुए भगवती आराधना में कहा गया है कि मुनि अपनी शक्ति के अनुसार भिक्षा से सम्बद्ध अनेक प्रकार के संकल्प ग्रहण करता है। जैसे-जिस मार्ग से पहले गया उसी मार्ग से लौटते हुए भिक्षा मिलेगी तो ग्रहण करूंगा, अन्यथा नहीं। सीधे मार्ग पर जाने पर भिक्षा मिली तो ग्रहण करूँगा, अन्यथा, नहीं। गाय अथवा बैल के मूत्रवत् मोड़ों सहित भ्रमण करते हुए भिक्षा मिली तो ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं। वस्त्र, सुवर्ण आदि के रखने के लिए बाँस के पत्ते आदि से बने ढक्कन युक्त सन्दूक के समान चौकोर भ्रमण करते हुए भिक्षा मिलने पर ही ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं। इसी प्रकार पक्षियों की पंक्ति के भ्रमण के समान ही भ्रमण करते हुए भिक्षा मिलेगी तो ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं। गोचरी भिक्षा के समान भ्रमण करते हुए भिक्षा मिलेगी तो ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं। एक-दो आदि फाटकों तक प्राप्त ही अथवा विवक्षित फाटक में प्राप्त हो, अथवा विवक्षित घर के आंगन में प्राप्त हो, अथवा द्रव्यरूप ही पिण्डरूप नहीं, अथवा धान्यादि रूप आहर मिलेगा तो ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं। कुल्भाष आदि व्यंन्जन से मिला हुआ शाक, जिसके चारों ओर शाक और बीच में भात हो ऐसा आहार, चारों और व्यंजन के मध्य मे रखा हुआ अन्न, व्यंजनों के मध्य मे पुष्पावली के समान चावल, शुद्ध अर्थात् बिना कुछ मिलाये अन्न उपहित अर्थात् मिले हुए शाक व्यंजन आदि लेवड अर्थात् जिससे हाथ लिप्त हो जाये, अलेवड़ अर्थात् जिससे हाथ लिप्त न हो, सिक्थ सहित पेय और सिक्थरहित पेय ऐसा भोजन ही मिलेगा तो ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं। इसी प्रकार सोने, चाँदी, काँसी या मिट्टी के पात्र द्वारा लाया गया भोजन ही ग्रहण करूँगा। स्त्री, बालिका, युवती, वृद्धा, अलंकार सहित अथवा अलंकार रहित स्त्री, ब्राह्मणी अथवा राजपुत्री द्वारा दिया आहार ही ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं । इस प्रकार बहुत से संकल्प भिक्षुक को अपनी शक्ति के अनुसार ग्रहण करके ही आहार के लिये निकलना चाहिए। संकल्पों के पूर्ण होने पर यदि भिक्षा लाभ होता है तो प्रसन्न और भिक्षा न मिलने पर दुःखी नहीं होना चाहिए, क्योंकि वह साधु दुःख सुख मे समान रहता है। वह भिक्षा लाभ के लिए किसी सद्ग्रहस्थ की प्रशंसा या उनसे याचना नहीं। करता । अचानक वृत्ति से बिना किसी संकेत या आवाज किये मौनपूर्वक भ्रमण करता है। किसी से दीनतापूर्वक भिक्षा नहीं माँगता । दीन या कलुष वचन नहीं बोलता है, अपितु भिक्षा लाभ न होने पर मौनपूर्वक लौट जाता है।2 अपना आगमन बताने के लिए याचक अव्यक्त शब्द नहीं करता है। बिजली की तरह अपना शरीर मात्र ही दिखाता है। कौन मुझे निर्दोष भिक्षा देगा, ऐसा भाव भिक्षुक के हृदय में नहीं आना चाहिए। 1 गत्तापच्चागद उज्जुवीहि गोमुत्तिय च पेलविय । सम्बूकावट्टपि पदगवीघी य गोयरिया । भ. आ.गा. 220 वि. सहित पाडयणियसणा भिक्खा परिमाणं दत्तिघासपरिमाण। पिंडेसणा य पाणेसणाा य जागूय पुग्गलया।। वही, गा. 221 ससिट्ठ फीलह परिखा पुप्फोवहिद व सुद्धगोवहिद। लेवडमलेवड पाणाय च णिस्सित्थग ससित्थं ।। वही, गा. 222 पत्तस्स दायगस्स य अवग्गहो बहुविहो ससत्तीए। इच्चेवमादिाविविहा णादव्वा वुत्तियपरिसखा।। वही, गा. 223 2 मूलाचार 9/50- 5 3. भगवती-अराधना गा. 1200 की वि.
SR No.538050
Book TitleAnekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1997
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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