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________________ आवरण २ का शेष आगमहीणो समणो णेवप्पाण परं वियाणादि। अविजाणंतोअट्टे खवेदि कम्माणि किध भिक्खू।। -चारित्राधिकार, गाथा-३३ आगम से हीन मुनि न आत्मा को जानता है और न आत्मा से भिन्न शरीर आदि पर पदार्थों को। स्व-पर पदार्थो को नही जानने वाला भिक्षु कर्मो का क्षय कैसे कर सकता है? अत ११वी गाथा का उपर्युक्त अर्थ पक्षग्राही होने से विवादास्पद ही रहा है। आचार्य जयसेन ने भी ११वी गाथा के उपर्युक्त अर्थ को स्वीकार नही करते हुए इसके अर्थ का दूसरा विकल्प निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया - “द्वितीय व्याख्यानेन पुन ववहारो अभूदत्थो व्यवहारोऽभूतार्थो भूदत्यो भूतार्थश्च देसिदो देशित कथित न केवल व्यवहारो देशित सुद्धणओ शुद्धनिश्चयनयोपि। दु शब्दादय शुद्ध निश्चयनयोपीति व्याख्यानेन भूताभूतार्थ भेदेन व्यवहारोपिद्विधा, शुद्धनिश्चयाशुद्धनिश्चयभेदेन निश्चय नयोपि द्विधा इति नय चतुष्टयम्।। इस प्रकार इस गाथा का अर्थ प्रारम्भ से ही विवादास्पद रहा है और आचार्य अमृतचन्द्र के परवर्ती टीकाकारो, व्याख्याकारो एव हिन्दी भाष्यकर्ताओ ने भी अनेक प्रकार की नय विवक्षाओ को न समझकर उसी का अनुकरण करते हुए इसको प्रमाण रूप मे प्रतिष्ठापित करने का प्रयत्न किया। परन्तु अप्रमाण रूप यह अर्थ अद्यावधि विवादास्पद ही बना रहा जिसका निराकरण चारित्र के पालन/अभिवृद्धि हेतु अत्यावश्यक है। ___ जिन शासन मे प्रतिपादित नय विवक्षा के अनुसार नय वस्तुत वस्तु के अशमात्र को ग्रहण करता है। नय चक्र मे इस कथन का प्रतिपादन निम्न प्रकार से किया गया है जंणाणीण वियप्पं सुदासयं वत्थुअंस संगहणं।। तं इह णयं पउत्तं णाणी पुण तेण णाणेण।। -नयचक्र, १७२ अर्थात् श्रुतज्ञान का आश्रय लिए हुए ज्ञानी का जो विकल्प वस्तु के अश को ग्रहण करता है उसे नय कहते है और उस ज्ञान से ज्ञानी होता है। व्यवहार नय की भाति निश्चय नय भी वस्तु के अश को ग्रहण करता है, न कि अभेद/पूर्णवस्तु को। दोनो ही नय वस्तु के अश के यथार्थ प्रतिपादक है, अत सापेक्ष दोनो नय मिथ्या नहीं है और निरपेक्ष दोनो नय मिथ्या है। इस सम्बन्ध मे नयचक्र का निम्न कथन महत्वपूर्ण है - । ण दु णयपक्खो मिच्छा तं पि य णेयंत्तदव्वसिद्धियरा। सियसद्दसमारुढं जिणवयणविणिग्गयं सुद्ध।। - नयचक्र, गाथा-२९३ अर्थात् जिनेन्द्र देव के वचन से विनिर्गत 'स्यात्' शब्द से समारुढ़ नयपक्ष भी मिथ्या नहीं है। क्योकि वह एकान्त से द्रव्य की सिद्धि नहीं करता है और वह शुद्ध है। यहाँ 'शुद्ध' शब्द से निश्चय नय नही समझकर पूर्वापर दोषरहित समझना चाहिये, जैसाकि प्रतिपादित है - आवरण
SR No.538050
Book TitleAnekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1997
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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