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अनेकान्त/२६
है। औषध दान के द्वारा दानकर्ता को पुण्य का संचय तो होता ही है, औषध दान का लाभ लेने वाला व्यक्ति आरोग्य लाभ करता है। औषध का समावेश चिकित्सा के अन्तर्गत है और चिकित्सा का सर्वांगपूर्ण विवेचन आयुर्वेद शास्त्र में निहित है। यही कारण है कि जैन समाज द्वारा स्थान-स्थान पर जैन धर्मार्थ दातव्य औषधालय खोले गए हैं जो केवल समाज के दान से ही चलते है और प्रतिदिन असंख्य आर्तजन उनसे लाभ उठाते है। यह परम्परा समाज में कई वर्षों से चली आ रही है। अत यह निसन्देह रूप से कहा जा सकता है कि जैन धर्म का आयुर्वेद से निकट सम्बन्ध है।
जैन धर्म के अनुसार मनुष्य के शरीर मे रोगोद्भव अशुभकर्म के उदय से होता है। मनुष्य के द्वारा पूर्वजन्म मे किए गए पाप कर्म का उदय जब इस जन्म मे फलित होता है तो अन्यान्य कष्टो के अलावा रोगोत्पत्ति रूप कष्ट भी उसे होता है। उसका निवारण तब तक सम्भव नहीं है जब तक उस अशुभ कर्म का परिपाक होकर उसका क्षय नही हो जाता। धर्माचरण से पाप का शमन होता है, अत पापकर्मजनित रोग का शमन धर्म सेवन से ही सम्भव है। यही भाव जैनधर्म मे निम्न प्रकार से प्रतिपादित है -
सर्वात्मना धर्मपरो नरः स्यात्तमाशु सर्वं समुपैति सौख्यम्। पापोदयात्ते प्रभवन्ति रोगा धर्माच्च पापाः प्रतिपक्षमावात्।। नश्यन्ति, सर्वे प्रतिपक्षयोगाद्विनाशमायान्ति किमत्र चित्रम्।
-कल्याण कारक ७/२९ अर्थात् जो मनुष्य सर्वप्रकार से धर्मपरायण रहता है उसे शीघ्र ही सभी प्रकार के सुख प्राप्त होते हैं। पाप के उदय से विविध रोग उत्पन्न होते हैं तथा पाप और धर्म मे परस्पर प्रतिपक्ष (विरोधी) भाव होने से धर्म से पाप का नाश होता है, अत धर्म के प्रभाव से पाप जनित रोग का नाश होता है। प्रतिपक्ष की प्रबलता होने से (धर्म के प्रभाव से) यदि रोग समूह विनाश को प्राप्त होते है तो इसमे आश्चर्य की क्या बात है?
धर्म के प्रभाव से पाप रूप रोग का जो विनाश होता है उसमे धर्म तो वस्तुत आभ्यन्तर कारण होता है और बाह्य करण विविध औषधोपचार होता