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अनेकान्त/१६
नित्य एकान्त पक्ष में भी विक्रिया (अवस्था से अवस्थान्तर रूप परिणाम, हलन-चलन रूप परिणाम/परिस्पन्द अथवा किसी भी क्रिया) की उत्पत्ति नहीं हो सकती। कारकों का अभाव पहले ही होता है। अर्थात् जहाँ कोई अवस्था न बदले वहाँ कर्ता, कर्म करणादि कारको का सद्भाव बनता ही नहीं जब कारकों का अभाव है तब प्रमाण और प्रमाण का फल ये दोनों कहाँ बन सकते है। यदि साख्यवादियो की ओर से यह कहा जाय कि कारण रूप जो अव्यक्त पदार्थ है, वह सर्वथा नित्य हैं, कार्य रूप जो व्यक्त पदार्थ है, वह नित्य नही है और इसलिए विक्रिया बनती है, तो व्यक्त पदार्थ हैं, वह नित्य नही है, क्योंकि सर्वदा नित्य के द्वारा कोई भी विकार रूप क्रिया नही बन सकती और न कोई अनित्य कार्य ही घटित हो सकता है। हे वीर! आपके शासन के बाह्य जो नित्यत्व का सर्वथा एकान्तवाद है, उसमें विक्रिया के लिए कोई स्थान नहीं है। कार्य को यदि सर्वथा सत्य माना जाय, तो वह उत्पत्ति के योग्य नहीं ठहरता अर्थात् कूटस्थ होने से उसमे उत्पत्ति जैसी कोई बात नही बनती है। वस्तु मे परिणाम की कल्पना नित्यत्त्व के एकान्त को बाधा पहुंचाने वाली है। जिनके आप नायक नहीं है, उन सर्वथा नित्यैकान्तवादियो के मत मे पुण्य-पाप की क्रिया नहीं बनती तथा परलोक गमन नहीं बनता । सुख-दुख रूप फल प्राप्ति की तो बात ही कहाँ से हो सकती है और न जन्म तथा मोक्ष ही बन सकता है। इसलिए नित्यत्व के एकान्त पक्ष मे कौन परीक्षावान किसलिए आदरवान हो सकता है। अर्थात् नही हो सकता है।
सर्वथा नित्यत्वैकान्तवाद का निषेध करने वाले स्वामी समन्तभद्र सर्वथा अनित्यत्वैकान्तवाद का भी उसी रूप मे खण्डन करते है।
स्याद्वाद सर्वथैकान्तत्यागात्-किवृत्तचिद्विधि । सप्तभङ्ग नयापेक्षो हेयाद्वेय-विशेषक.।। -आप्तमीमासा १०४
"स्यात्" यह शब्द निपात है और यह सर्वथा एकान्त का त्यागी होने से "कथञ्चित्, कथञ्चन'' आदि शब्द के अर्थ का वाची है। जैसे जीव नित्य है, अनित्य भी है। स्याद्वाद सप्तभंगनय की अपेक्षा रखता है, अतएव सप्तभगी प्रक्रिया को समझ लेना आवश्यक है।