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अनेकान्त/१५
सर्वथा 'पद' विवक्षित धर्म के विरोधी धर्म का निषेध करता है, अतः मिथ्या है, किन्तु स्यात्' पद विवक्षित धर्म के साथ-साथ विरोधी धर्म को भी स्वीकार करता है, अत. स्यात् अर्थात् कथंचित् पद सम्यक् अर्थात् समीचीन है। स्यात् पद वस्तु के समस्त धर्मो का अर्थात् वस्तु के यथार्थ का स्वरूप प्रकाशक है।
स्याद्वाद सिद्धान्त-सम्मत जिन-शासन त्रैलोक्य में जयशील है, क्योंकि इस सिद्धान्त मे यह शक्ति है कि वह अनेक धर्म युक्त प्रमाण को अनेकान्त बना देता है और परस्पर विरोधी नयो को सम्यक् बना देता है। जैसा कि प्रतिपादित है
श्रीमत्परमगम्भीर स्याद्वादामोघलाञ्छनं। जीयात्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन शासनम्।।
प्रमाण रूप स्याद्वाद सामान्य-विशेषात्मक वस्तु को विषय करने वाला है। इसका स्पष्टीकरण करते हुए आचार्य समन्तभद्र कहते है
स्याद्वाद सिद्धान्त की विवक्षा से वस्तु नित्यानित्य मानी गई है। कोई एकान्तवादी वस्तु को सर्वथा नित्य मानता है तो वस्तु की अनेक अवस्थाओं का पलटना कैसे सभव है? जो मिट्टी पिण्ड रूप है, वह सदैव पिण्ड रूप ही रहेगी, उससे घटोत्पत्ति कभी नही होगी। नित्यता के सर्वथा एकान्त पक्ष मे ससार और मोक्ष की व्यवस्था तक असभव है। इसके दोषों का कथन समन्तभद्राचार्य ने निम्न प्रकार से किया है
नित्यत्वैकान्त पक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते। प्रागेव कारकाभावः क्व प्रमाणं क्व तत्फलम्।। प्रमाण कारकैर्व्यक्तं व्यक्तं चेदिन्द्रियाऽर्थवत्। ते च नित्ये विकार्य विकार्य किं साधोस्ते शासनाद् बहिः।। यदि सत्सर्वथा कार्य पुंवन्नोत्पत्तुमर्हति॥ परिणाम प्रवलृप्तिश्च नित्यत्वैकान्त बाधिनी।। पुण्य पाप क्रिया न स्यात्प्रेत्यभावः फलं कुतः। बन्धमोक्षौ च तेषां न येषां त्वं नासि नायकः।। -आप्तमीमासा, ३७ से ४०