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व्यवहारनय अभूतार्थ नहीं
रूपचन्द कटारिया ववहारो भूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ। भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्टि हवदि जीवो।। -समयसार, गाथा-११ इस गाथा की सस्कृत छाया आचार्यों द्वारा निम्न प्रकार से की गई हैव्यवहारोऽभूतार्थो भूतार्थो दर्शितस्तु शुद्ध नय:। भूतार्थमाश्रितः खलु सम्यग्दृष्टिर्भवति जीवः।।
श्री अमृतचन्द्राचार्य ने इसकी उत्तरवर्ती बारहवी गाथा “सुद्धो सुद्धोदेसो की टीका मे उक्त च करके निम्न प्रामाणिक गाथा भी उद्घृत की है -
जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहार णिच्छए मुयह। एक्कण विणा छिज्जई तित्थं अण्णेण उण तच्चं।।
अर्थात् जिनमत मे दीक्षित होना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय को मत छोड़ो। क्योकि व्यवहार के बिना तीर्थ क्षीण होता है और निश्चय के बिना तत्व क्षीण होता है।
इसी भाति यही बात श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने नियमसार मे जिन शासन की व्याख्या करते हुए निम्न प्रकार से कही है -
मग्गो मग्गफलं ति य दुविहं जिणसासणे समक्खादो। मग्गो मोक्खउवायो तस्स फलं होइ णिव्वाणं।।
अर्थात् जिन शासन मे मार्ग और मार्गफल इस तरह दो प्रकार का कथन किया गया है। इसमे मोक्ष का उपाय अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र मार्ग है और निर्वाण की प्राप्ति होना उसका (मार्ग का) फल है।
इस भाति इस गाथा मे वर्णित मार्ग और उपर्युक्त गाथा मे कथित तीर्थ दोनो एकार्थवाची है और जिन शासन के अग है और जिन शासन का कोई भी अग अभूतार्थ नहीं है। क्योकि आगम उनका प्रतिपादन करता है और वह आगम साधु का चक्षु होता है। जैसा कि प्रवचनसार की निम्न गाथा से स्पष्ट है -
आगम चक्खू साहू इंद्रियचक्खूणि सव्वभूदाणि। देवा य ओहि चक्खू सिद्धापुण सव्वदोचक्खू।। -चारित्राधिकार, गाथा-३४
अर्थात् मुनि आगम रूपी नेत्रो के धारक है, ससार के समस्त प्राणी इन्द्रिय रूपी चक्षुओ से सहित है, देव अवधिज्ञान रूपी नेत्र से युक्त है और अष्टकर्म रहित सिद्ध भगवान सब ओर से चक्षु वाले है अर्थात् केवलज्ञान के द्वारा समस्त पदार्थो को युगपत् जानने वाले है।
यदि साधु एक नय को पकड़ कर चलेगा तो उसकी प्रवृज्या नहीं है और आगम से हीन साधु आत्मा और पर को नहीं जानता है, जैसा कि श्रीमद् कुन्दकुन्दाचार्य ने प्रवचनसार की निम्न गाथा मे कहा है -
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