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अनेकान्त/11 की हिंसा करता है। द्वितीय अध्ययन लोकविजय में इसे और भी स्पष्ट करते हुए कहा है कि सांसारिक विषयों का सयोजन प्रमाद के कारण होता है।
प्रमादी व्यक्ति रात दिन परितप्त रहता है, काल या अकाल में अर्थार्जन का प्रयत्न करता है. संयोग का अर्थी होकर अर्थलोलुपी चोर या लुटेरा हो जाता है। उसका चित्त अर्थार्जन मे ही लगा रहता है। अर्थार्जन में सलग्न पुरुष पुनः पुनः शस्त्रसहारक बन जाता है। परिग्रही व्यक्ति मे न तप होता है, न शान्ति और न नियम होता है। यह सुखार्थी होकर दुःखी बन जाता है।
इस प्रकार संसार का प्रारम्भ आसक्ति से होता है और आसक्ति ही परिग्रह है। परिग्रह का मूल साधन हिसा है, झूठ, चोरी कुशील उसके अनुवर्तक है और परिग्रही उसका फल है । अत जैन सस्कृति मूलत अपरिग्रहवादी सस्कृति है जिसका प्रारम्भ अहिसा के परिपालन मे होता है। महावीर ने अपरिग्रह को ही प्रधान माना है।
आधुनिक युग मे मार्क्स साम्यवाद के प्रस्थापक माने जाते है। उन्होंने लगभग वही बात की है जो आज से 2500 वर्ष पूर्व तीर्थकर महावीर कह चुके थे। तीर्थंकर महावीर ने ससार के कारणो की मीमासा कर उनसे मुक्त होने का उपाय भी बताया पर मार्क्स आधे रास्ते पर ही खडे रहे | दोनो महापुरुषो के छोर अलग-अलग थे। महावीर ने “आत्मातुला" की बातकर समता की बात कही और हर क्षेत्र मे मर्यादित रहने का सुझाव दिया। परिमाणव्रत वस्तुत सपत्ति का आध्यात्मिक विकेन्द्रीकरण है और अस्तित्ववाद उसका केन्द्रीय तत्त्व है। जबकि मार्क्सवाद मे ये दोनो तत्त्व नहीं हैं। ___ परिग्रही वृत्ति व्यक्ति को हिसक बना देती है। आज व्यक्तिनिष्ठा कर्तव्यनिष्ठा को चीरती हुई स्वकेन्द्रित होती चली जा रही है। राजनीति और समाज मे भी नये-नये समीकरण बनते चले आये है । राजनीति का नकारात्मक और विध्वसात्मक स्वरूप किकर्तव्य विमूढ-सा बन रहा है। परिग्रही लिप्सा से आसक्त असामाजिक तत्त्वों के समक्ष हर व्यक्ति घुटने टेक रहा है। डग-डग पर असुरक्षा का भान हो रहा है। ऐसा लगता है, सारा जीवन विषाक्त परिग्रही राजनीति मे उदरस्थ हो गया है। वर्गभेद, जातिभेद, सप्रदायभेद जैसे तीखे कटघरे मे परिग्रह के धूमिल साये में स्वतन्त्रता/स्वच्छन्दता पूर्वक पल पुस रहे है।
इस हिंसकवृत्ति से व्यक्ति तभी विमुख हो सकता है जब वह अपरिग्रह के सोपान पर चढ जाये। परिग्रह परिमाणव्रत का पालन साधक को क्रमश तात्विक चिन्तन की ओर आकर्षित करेगा। और समता भाव तथा समविभाजन की प्रवृत्ति का विकास होगा। अणुव्रत की चेतना सर्वोदय की चेतना है। पर्यावरण इसी चेतना का अंग
अनेकान्तवाद : सर्वोदयदर्शन और पर्यावरण का संमिलन
अनेकान्तवाद और सर्वोदयवाद पृथक् नहीं किये जा सकते। अनेकान्तवाद सत्य और अहिंसा की भूमिका पर प्रतिष्ठित तीर्थंकर महावीर का सार्वभौमिक है