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अनेकान्त/12
कुन्दकुन्दकृत नियमसार में "नियम"
की अवधारणा
-डॉ. ऋषभचन्द्र जैन 'फौजदार' नियमसार शौरसेनी प्राकृत गाथा निबद्ध श्रमणाचार विषयक आचार्य कुन्दकुन्द की विशिष्ट रचना है। आचार्य ने स्वयं इसे "णियमसार* नाम दिया है। इसका परिमाण मात्र 187 प्राकृत गाथा है। आचार्य कुन्दकुन्द ने विषय की दृष्टि से इसमें कोई विभाजन नहीं किया है। उनकी भाषा, सरस, सरल एवं प्रवाहपूर्ण है। नियमसार ग्रन्थ पद्मप्रभु मलधारिदेव की तात्पर्यवृत्ति नामक सस्कृत टीका है। यह टीका गद्य-पद्यमय है। प्रत्येक गाथा की टीका के बाद एक या अधिक श्लोको द्वारा विषय को स्पष्ट किया गया है। टीकाकार ने स्वरचित संस्कृत श्लोकों मे विभिन्न छन्दों का प्रयोग किया है। सस्कृत टीका मे श्लोकों की कुल सख्या 311 है। विषय की दृष्टि से टीकाकार ने पूरे नियमसार को चार अधिकारो में विभाजित किया है।
नियमसार को स्वयं आचार्य कुन्दकुन्द ने "श्रुत" कहा है। संस्कृत टीकाकार ने इसे भागवत शास्त्र कहा है और इसके अध्ययन का फल शाश्वत सुख बताया है। संकृत टीका की पीठिका मे इसे परमागम भी कहा गया है। इससे ग्रन्थ का वैशिष्ट्य स्वयमेव प्रमाणित हो जाता है।
नियमसार मे नियम की व्याख्या करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि"णियमेण य जं कज्जं तण्णियमं णाणदंसणचरित्तं।" अर्थात् नियम से करने योग्य जो कार्य है, वह “नियम" है । वह “नियम” ज्ञान, दर्शन और चारित्र है। नियम शब्द से आचार्य कुन्दकुन्द ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का प्रतिपादन किया है । पुन वे कहते है कि - "विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं । अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र से विपरीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र का परिहार करने के लिए “सार यह वचन (पद) कहा है। आगे आचार्य कहते है--
णियमं मोक्खउवायो तस्स फलं हवदि परमणिव्वाणं।
एदेसिं तिण्ह पि य पत्तेय परुवणा होइ।। अर्थात् नियम मोक्ष का उपाय है और उसका फल परमनिर्वाण होता है। इन तीनों सम्यगदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र में से प्रत्येक की प्ररूपणा होती