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अनेकान्त/31
निर्विकल्प अनुभूति कैसे हो?
__ डॉ. राजेन्द्र कुमार बंसल जगत के जीवों ने कुछ कार्य करने या न करने को धर्म मान लिया है। करने या न करने के अलावा 'होना' जिसे अंग्रेजी में 'बी' कहते हैं, भी होता है, इस ओर किसी की दृष्टि नहीं जाती। ऐसा सम्भव भी नहीं है क्योंकि 'होने में कुछ करना नहीं पड़ता, जबकि संस्कार वश हम कुछ करने या न करने के अभ्यासी बने हैं। __कुछ करना या न करना भी सापेक्षिक है। किसी को कुछ अच्छा लगता है, किसी को कुछ और। देश और काल के अनुसार बदले हुए माहौल में करने या न करने का मापदण्ड भी बदलता रहता है, जो एक की राय में सही होता है वह दूसरे की राय में गलत सिद्ध हो जाता है। जो एक देश की परम्परा है वह दसरे देश में नही है। इस प्रक्रिया में धर्म शब्द की बड़ी फजीहत हुई है। जिसकी जैसी आस्था और विचार होते हैं वैसा वह कार्य व्यवहार करता है। संकीर्ण एकांगी धार्मिक विचारधारा के कारण मानव समाज को जितना अपमानित एवं संत्रस्त होना पड़ा है, उसकी मिसाल मिलना कठिन है। ___आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व श्रमण संस्कृति में आचार्य कुन्द कुन्द हुए। वे आगम विद् और तत्वमर्मज्ञ तो थे ही, साथ ही धर्म-विद् और आत्म-विद् भी थे। उन्होंने समयसार, प्रवचनसार, नियमसार आदि अनेक ग्रथों की स्वानुभूति जन्य रचना की। समयसार का अर्थ है शुद्धात्मा । आत्मा कैसे शुद्ध हो, इसका वर्णन उन्होने समयसार में किया। इस दृष्टि से समयसार चैतन्य सताओ का आद्य विज्ञान ग्रंथ है जिसे आत्म विज्ञान भी कहा जा सकता है । भौतिक विज्ञानी प्रकृति के रहस्यों का उद्घाटन करते हैं। आचार्य कुंदकुद ने उद्घाटन कर्ता के स्वरूप रूप धर्म का उद्घाटन किया। खोज करने वाले की खोज की । आज के वैज्ञानिकों विचारकों से अपेक्षा है कि वे आचार्य कुन्दकुन्द के आत्म रहस्य को समझ कर अपने में अपने आज को खोजें और धर्म स्वरूप वनें।
धर्म क्या है? आचार्य कुन्द कुन्द ने विभिन्न दृष्टिकोणों से धर्म के रहस्य, मर्म को व्यक्त किया। जैसे 'वत्थु सहावो धम्मो' अर्थात् वस्तु का स्वभाव ही धर्म है, 'चारित्तं खलु धम्मो' अर्थात् चारित्र ही वास्तविक धर्म है एवं 'दया विसुद्धो धम्मो' अर्थात् दया ही विशुद्ध धर्म है। धर्म की इन तीन व्याख्याओं में कहीं भी दान-पुण्य, धर्म-ध्यान, आदि कुछ करने या नही करने का सकेत नहीं है।
वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। इसका यह अर्थ है कि जिस वस्तु का जो स्वभाव/गुण है, वही उसका धर्म है। इसका फलित अर्थ यह हुआ कि जो स्वभाव गुण जिस वस्तु का है, वह उसी गुण/स्वभाव में स्थित रहे, यही उसका धर्म है। जल तरल और शीतल है। वह उसी रूप मे रहे, वर्फ या भाव रूप मे न रहे, यही जल का धर्म है और यह उसका चारित्र है। जल का वर्फ या भाप रूप में रहना अधर्म या विकृति है। यही स्थिति अन्य अचेतन जगत की है।
जिस प्रकार अचेतन वस्तुओं के धर्म रूप स्वभाव है, उसी प्रकार आत्मा का