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________________ अनेकान्त / 30 इस प्रकार स्पष्ट है कि चारों अनुयोगों की सम्यग्ज्ञान में परस्पर पूरक उपयोगिता है। जो जीव प्रथमानुयोग से महापुरुषों का आदर्श जीवन अपनाता है, करणानुयोग जानकर संसार से भयभीत हो जाता है, चरणानुयोग में प्रतिपादित चारित्र को धारण करता है। तथा द्रव्यानुयोग के अनुसार आत्मस्वरूप का ध्यान करता है, वही द्रव्यश्रुत के साध्य भावश्रुत को पाता है और परिणाम रुप में मुक्तिरमा का वरण करता है। चारों ही अनुयोग उपयोगी हैं तथा चारों की ही सापेक्ष मुख्यता गौणता है। मोक्षमार्ग प्रकाशक में मोक्षमार्ग की दृष्टि से द्रव्यानुयोग की प्रधानता का कथन करते हुए कहा गया है- मोक्षमार्ग का मूल उपदेश तो तहाँ ही है । 14 वहीं चारों अनुयोगों की पृथक्-पृथक् दृष्टिकोणों से समन्विति दिखाई गई है । प्रथमानुयोग को सरागी जीवों को वतासायुक्त औषध, करणानुयोग को उपयोग की निर्मलता में कारण, चरणानुयोग को संयम धारण करने में सहायक तथा द्रव्यानुयोग को मोक्षमार्ग का मूल उपदेशक कहकर चारों की उपयोगिता का प्रतिपादन किया गया है | चरणानुयोग की सापेक्षता का कथन करते हुए सयम को निष्प्रयोजनभूत कहने वालों को करारा जवाब देते हुए कहा गया है कि 'बहुरि जो बाह्यसंयम तैं किछू सिद्धि न होय तो सर्वार्थसिद्धि के वासी देव सम्यग्द्रष्टि बहुत ज्ञानी तिनिकैं तो चौथा गुणस्थान होय अर गृहस्थ श्रावक मनुष्य के पंचम गुणस्थान हो सो कारण कहा । बहुरि तीर्थकरादि गृहस्थ पद छांड़ि काहेकौं संयम ग्रहैं | 15 अत चारों अनुयोग जैनागम के चार भेद हैं। इन अनुयोगों में विभिन्न दृष्टिकोणों से चर्चा की जाती है। किसी भी अनुयोग को निष्प्रयोजनभूत कहना सम्यग्ज्ञान या श्रुतज्ञान के एक चौथाई हिस्से का व्यर्थ कहने के समान है, जो किसी भी दृष्टि से समीचीन नहीं कहा जा सकता है। सन्दर्भ (1) संस्कृत हिन्दी कोश - वामन शिवराम आप्टे (2) दि जैन साहित्य का इतिहास भाग -1 (पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री) पृ 4 द्रप्सांग्रह टीका, गया 42 ( इत्युक्तलक्षणानुयोगचतुष्टय रूपेण चतुर्विध श्रुतज्ञानज्ञातम् ) ( 3 ) (4) क्रियाकलाप, समाधिभक्ति पृ 297 (5) आत्मानुशासन, श्लोक 176 (6) रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक 43 (7) हरिवशपुराण 10/71 'आज्ञामार्गीपदेशसूत्र बीज सक्षेप विस्तारार्थावगाढपरमावगाढ रुचिभेदात् ।' राजवार्तिक 3 / 26 (9) 'तीर्थकरबलदेवादिशुभचरितोपदेशहेतु कश्रद्वाना दपदेशरुपय राजवार्तिक, 3/36 ( 10 ) रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक 44 (11) वही, श्लोक 45 भावसंग्रह, गाथा 131 ( 12 ) ( 13 ) रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक 46 (14) मोक्षमार्गप्रकाशक, अष्टम अधिकार पृ 15 (15) वही, पृ 14
SR No.538049
Book TitleAnekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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