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अनेकान्त/20 राजा से सहायता लेने का प्रश्न ही नहीं उठता। उसने निर्माण कार्य भी करवाए होंगे जिनमें से एक का शिलालेखीय प्रमाण मिलता है। किंतु संभवतः अकाल की भीषणता का अनुभव कर चंद्रगुप्त मौर्य बारह हजार मुनियों और उनके आहार आदि की व्यवस्था के लिए कम से कम दो लाख जैन श्रावकों और अन्य प्रजाजनों को साथ लेकर अर्थात् सजनपद अपना राज्य पुत्र बिंदुसार और चाणक्य के हाथो में सौंप कर समुद्रतटीय प्रदेशों की ओर चला। इस संकट की छाया के समय वह अपनी उपराजधानी उज्जयिनी में था ऐसी अनुश्रुति है। अनुमान है कि वह मनमाड के निकट चंद्रवट नामक स्थान पर पहुंचा जो कि गुजरात की सीमा में है। इस स्थान का मूल नाम चंद्रवाट अर्थात् चंद्र (चद्रगुप्त) का मार्ग रहा होगा। वाट का संस्कृत में मार्ग या रास्ता अर्थ होता है। इस स्थान के समीपस्थ मध्यप्रदेश में वट शब्द मार्ग के अर्थ में आज भी प्रयुक्त होता है। (जैसे करवट यानी गाडियो के आने-जाने से बना मार्ग)। अत कोई आश्चर्य नहीं कि इस स्थान का नाम चंद्रगुप्त की दक्षिण यात्रा के मार्ग मे पड़ने के कारण प्रचलित हुआ हो। इस यात्रा में वह समुद्रतट के निकट के पर्वत गिरनार आया। वहा अपने इष्टदेव नेमिनाथ के चरणों की वदना की होगी। गिरनार (जूनागढ) की तलहटी में उसने अपने वैश्य राज्यपाल पुष्यगुप्त की देखरेख में सुदर्शन नामक सरोवर का निर्माण कराया जिसकी पुष्टि रूद्रदामन के 150 ईस्वी के शिलालेख से होती है। रूद्रदामन ने इस लेख में कहा है कि उसने चंद्रगुप्त द्वारा निर्मित सरोवर के तटबंध की मरम्मत बिना अतिरिक्त कर लगाए करवाई है। गिरनार में भी एक गुफा का नामकरण चंद्रगुप्त के नाम पर हुआ ऐसा प्रतीत होता है। सौराष्ट्र से वह कोकण प्रदेश की ओर बढा जहा चद्रभागा नदी बहती है। फिर आगे बढने पर वह कर्नाटक के सिद्धापुर तालुक के सेएर नामक स्थान पहुंचा जिसके समीप का पर्वत चंद्रगुट्टी कहलाता है। तदनन्तर वह केरल के कासरगोड जिले में प्रविष्ट हुआ जहां चंद्रगिरि नामक एक नदी है और चंद्रगिरी नाम का एक पर्वत भी है। केरल सरकार के एक प्रकाशन District Handbook Kasargod में इस बात का उल्लेख है कि चंद्रगिरी नाम चंद्रगुप्त मौर्य के सम्मान में रखा गया था। यह उल्लेख इस प्रकार है- "There are 12 rivers in the district. The longest is Chandragiri (105 Kms.) origintating from the pattimala in Koorg and embraces the sea at Thalangara. The name Chandragiri dirived from the source of the river 'Chandragupta vasti' where the great Maurya Emperor Chandragupta is believed to have spent this last days as a saint" (P.3). रॉबर्ट सेवेल ने लिखा है कि उक्त नदी के किनारे एक शिलालेख है जो पढा नहीं जा सका। इसी प्रकार वह नेल्लिथांपति (केरल) के चंद्रगिरी पर्वत तक पहुचा।