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अनेकान्त/8 ___ भाषा-विज्ञानियों के अनुसार, इस समय-सीमा में प्राकृत भाषा अपने विकास के द्वितीयस्तर के तीन चरणों में से प्रथम चरण पर रही है जैसा कि पहिले कहा गया है। इस चरण में प्राकृत हमें अनेक रूपों में मिलती है- शिलालेखी,प्राकृत, जातकों की पालि प्राकृत, जैनागमों आदि आगम-तुल्य ग्रन्थों की प्राकृत एवं नाटकों की प्राकृत। यह भाषा कथ्य के समान प्राचीन नहीं है। समय के साथ उसके रूप, ध्वनि, शब्द और अर्थ निश्चित हुए हैं। जिससे उसकी नवीन प्रकृति का अनुमान लगाया जाता है। इससे प्राकृत और साहित्यिक प्राकृत में अन्तर भी प्रकट होता है। और एक चक्रीय भाषिक प्रक्रिया का अनुमान भी लगता हैप्राकृत भाषा-साहित्यिक प्राकृत-नयी जनभाषा- नयी साहित्यिक भाषा नयी जनभाषा प्राकृत..........
यह प्रक्रिया ही भाषा के विकास के इतिहास को निरुपित करती है। इस प्रथम चरण की समय सीमा में प्राकृत उपभाषाओं में भेद प्रकट नहीं हुए थे। भाषा से एकरूपता एवं अर्धमागधी स्वरूपता बनी रही। फिर भी वर्तमान आगम-तुल्य ग्रंथों की अर्धमागधी के स्वरूप में महावीर कालीन सर्वभाषामय स्वरूप की तुलना में कुछ परिवर्तन तो आया ही होगा। अब इसमें मुख्यतः मागधी और शौरसेनी का मिश्रण है। फिर भी, यह जन भाषा है, व्याकरणातीत भाषा है- परम्परित भाषा है। यह तत्कालीन बहुजन-बोधगम्य भाषा है। उत्तरवर्ती युग में जब राजनीति या अन्य कारणों से मगध में जैनधर्म का ह्रास हुआ और मथुरा जैनों का केन्द्र बना, तो यह स्वाभाविक था कि अस्मिता के कारण इसका नामरूप परिवर्तन हो । इसमें अब शौरसेनी की प्रकृति की अधिकता समाहित होने लगी। फिर भी यह मिश्रित भाषा तो रही है। शिरीन रत्नागर ने भी दो भाषाओं के मिश्रण से उत्पन्न नयी भाषा के विकास के कारणों की छानबीन में इसे मिश्रित भाषा ही बताया है। इसको पश्चिमी भाषा-विज्ञानियों ने 'जैन शौरसेनी' इसीलिए कहा है कि यह शुद्ध शौरसेनी नहीं हैं। 'जैन' शब्द लगने से उसमें मागधी या अर्धमागधी का समाहार स्वयमेव आपतित है। इसकी अपनी कुछ विशेषताएँ हैं। | चूंकि यह शुद्ध शौरसेनी नहीं है, इसलिए कुछ विद्वान 1979 में ही 'रयणसार' के नव संस्करण के पुरोवाक् में यह लिखने का साहस कर सके कि मुद्रित कुंदकुद साहित्य की वर्तमान भाषा अत्यंत भ्रष्ट एवं अशुद्ध है। यह बात उनके सभी ग्रंथों के बारे मे है। वे यह भी कहते हैं कि यह स्थिति भाषा ज्ञान की कमी के कारण हुई है। यह 'जैन 'शौरसेनी' के सही रूप को न समझने का परिणाम है। फलत उन्होंने 'रयणसार' 'नियमसार' और 'समयसार' आदि ग्रन्थों के भाषिकत शुद्ध शौरसेनीकरण की प्रक्रिया अपनाई है। आगम-तुल्य ग्रंथो का संपादन'
इस शौरसेनीकरण की प्रक्रिया का नाम 'संपादन' रखा गया है। इसमें पुरोवाक्' 'मुन्नुडि हो गया है। समयसार के संपादन का आधार 22 मुद्रित और 35 हस्तलिखित प्रतियों में से 1543 ई (1465शक) की प्रति को बनाया गया है। जो समालोचकों को उपलब्ध नहीं कराई जा सकती। यही नहीं, 1993 में तो यह स्थिति