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________________ अनेकान्त/26 सबसे ऊँची है जिस पर खडे होकर चारों ओर का मनोहारी प्राकृतिक दृश्य ऑखोंको शीतलता स्निग्धता प्रदान करता है। यहाँ का सम्पर्ण पर्यावरण शुद्ध प्राण वायु का फैला हुआ अपार भण्डार है। यही प्राण वायु यहाँ की वायु में अधिकतम प्रतिशत के रूप में विद्यमान है। जो पैदल वन्दनार्थी भक्त गणों मे अपार शक्ति का संचार करती है और 27 किमी की यात्रा में थकान महसूस नहीं होने देती। एक ओर भक्त की श्रद्धा काम करती है तो बाह्य घटक के रूप में यह 'प्राणवायु' सासों में घुलकर ऊर्जा का स्रोत बनती है। पूरा मधुबन (सम्मेद शिखर) पार्श्व प्रभु की पर्यावरणीय चेतना का अमर सन्देश वाहक बना हआ है। पर्यावरण संरक्षण में पार्श्वनाथ पर विहंगम दृष्टि भगवज्जिनसेनाचार्य ने अपने अमर महाकाव्य ‘पार्श्वभ्युदय' के माध्यम से डाली है। आचार्य जिनसेन ने 'सम्बर' के माध्यम से मेघ के रूपो तथा उसके प्रतिफलों को अधिक विस्तार से वर्णित किया था अपने अध्यात्म रूप निर्मल भावों की साक्ष्य से यह सिद्ध किया कि पार्श्वप्रभु याचक नहीं परिपूर्णत समर्थ हैं। अधम कमठ का जीव सम्बर मेघो से उनके चित्त में क्षोभ उत्पन्न करना चाहता है और सोचता है कि पार्श्व का धैर्य डगमगाने पर किसी विचित्र उपाय से उन्हें मार डालूँगा, लेकिन वह उन की आत्म-शक्ति से अपरिचित है। जिनसेन की दृष्टि में सम्बर देव-काम, क्रोध एव मद से युक्त राग-द्वेष के द्वन्दो में झल रहा है. वही वीतरागी पार्श्व प्रभ निश्छल समाधि की ओर बढ़ते हुए आत्म-वैभव को पाने वाले है । इस प्रकार पार्श्वनाथ का बाहरी पर्यावरण जिसमें वे ध्यानस्थ हैं जितना स्वच्छ व धवल है उनका भीतरी पर्यावरण भी सारे प्रदूषणो से रहित होकर पूर्ण स्वच्छ व धवल है उनका भीतरी पर्यावरण भी सारे प्रदूषणो से रहित होकर पूर्ण स्वच्छ बन चुका है। न वहाँ कामना का ज्वार है और नही काम है। उस निरजन पर्यावरण मे अक्षय शान्ति का स्रोत खुल गये है। सही है जिसका भीतरी पर्यावरण-संरक्षित बन गया, बाहर के पर्यावरण प्रदूषण उनका भला क्या बिगाड सकते हैं? आत्म तत्व की अजेय शक्ति के सामने बाहर की सारी विद्रूप शक्तियाँ लडखडा जाती हैं। तीर्थकर पार्श्वनाथ की वाणी में करुणा, मधुरता और शान्ति की त्रिवेणी समाहित है। करुणा में अहिंसा, मधुरता में प्रेम और शान्ति में समता व सत्य झॉकता है। उन्होंने अहिसा की अजेय शक्ति के सहारे अज्ञान पूर्वक कष्ट उठाते तपाग्नि तपते तापसी परम्परा का निर्मूलन किया। विवेक व ज्ञान युक्त तपश्चरण की राह दिशा प्रशस्त की। तप के सही रूप को बताया, जो सांसारिक सुख के लिए नहीं वरन् भीतरी स्वरूप को उज्जवल बनाने के लिए हुआ करता है। तप से कर्म निर्जरा होती है और व्यक्ति का भीतरी प्रदूषण समान होकर नवोन्मेष साधना व संयम की राह प्रशस्त होती है। संक्षेप में पर्यावरण संरक्षण की दिशा में तीर्थकर पार्श्वनाथ की पारगामी दृष्टि उल्लेखनीय है। ध्यान रहे उन्होंने जीवन और जगत को, प्रकृति के साथ चलाने के लिए कहा। प्रकृति पर्यावरण के संरक्षण के प्रति समर्पित है। OD
SR No.538049
Book TitleAnekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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