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________________ अनेकान्त/6 श्रावक कहते है। इसी प्रकार प आशाधर ने सागार धर्मामृत की स्वोपज्ञ टीकाओ मे कहा है कि गुरु आदि से जो धर्म सुनता है वह श्रावक कहलाता है।16 (क) श्रावक' में आगत तीनों अक्षरों की व्याख्या की अपेक्षा : श्रावक शब्द का गठन 'श्रा' 'व' 'क' के मेल से हुआ है इस दृष्टि से अभिधान राजेन्द्र कोश मे श्रापक की निरुक्ति करते हुए कहा गया है कि श्रावक में 'श्र' शब्द तत्वार्थ श्रद्वान का सूचक है। 'व' शब्द सात धर्मक्षेत्रो में धन रुपी बीज बोने की प्रेरणा करने का सकेत करता है। 'क' शब्दक्लिप्ट या महापापो को नष्ट करने का सकेत करता है। कर्मधारय समास किए जाने पर 'श्रावक' निष्पन्न होता है।17 अत गुरुओ से परलोक हितकारी सम्यक्त्व सुनने वाला श्रावक कहलाता है। तात्पर्य यह है कि श्रावक सम्यग्दर्शन को धारण कर जैन शासन को सुनता है, दान देता है, सुकृत एव पुण्य के कार्य करता हुआ सयम का आचरण करता (य) श्रावक वाची शब्द · नैन वाडमय में श्रावक को सागार अगारी, गृहस्थ, अणुव्रती, उपासक देशसयमी, विवेकवान, संयतासंयत, पंचमगण स्थानवर्ती विरक्तिचित्त वाला आदि कहते है। अत इन शब्दों के अर्थ भी विचारणीय हैं। (i) सागार : सागार शब्द स + आगार से बना है। अत इन शब्दो ना आगार सहित होता हे उसे सागार कहते है। पूज्यपादाचार्य सवार्थसद्धि18 मे कहते है कि आश्रय चाहने वाले जिसे स्वीकार करते है, उसे आगार (घर) कहते है। जिसके घर है उसे आगारी कहा है। चरित्र पाहुड19 मे आचार्य कुन्दकुन्द ने परिग्रह युक्त को सागार कहा है। पं आशाधर ने सागार धर्ममृत की स्वोपज्ञ टीका20 में परिग्रह सहित घर मे रहने वाले को सागार कहा है। उपर्युक्त परिभाषाओ से फलित होता है कि जो परिग्रह से युक्त है वह सागार है। भले ही वह जगल को ही अपना आश्रय समझता हो। सपरिग्रही जहा रहेगा वही उसका घर होगा। (ii) उपासक : का अर्थ वह व्यक्ति जो उपसना करे । दूसरे शब्दो मे अपने इष्ट देव, गुरु धर्म की उपासना21 अर्थात आराधना या सेवा करने वाला उपासक कहलाता है। जो गृहस्थ वीतराग देव की सदैव पूजा, भक्ति स्तुति आदि करता है, वीतराग धर्म मे श्रद्धा रखता है और उसकी आराधना करता है, निर्ग्रन्थ मुनियो की सेवा (वैयावृत्य) करता है, वीतराग धर्म में श्रद्धा रखता है और उसकी आराधना करता है। इसी कारण से गृहस्थ को उपासक कहते हैं। डा मोहनलाल मेहता ने कहा भी है "श्रमणवर्ग की उपासना करने के कारण वह श्रमणोपासक अथवा उपासक कहलाता है। यहाँ विशेष रुप से उल्लेखनीय है कि अर्धमागधी वाड मय मे श्रावक के लिए समणोपासक, उपासक, एव श्रमणभूत शब्दों का अधिकतर प्रयोग किया गया है।
SR No.538048
Book TitleAnekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1995
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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