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________________ अनेकान्त/5 'उपासकाध्ययन' नामक अग में उसे गूथा था। इसके पश्चात् सुधर्मा स्वामी आदि केवलियो विष्णु आदि श्रुत केवलियो ने उक्त अगानुसार श्रावक धर्म का निरुपण किया । वी नि सं 683 के पश्चात् क्रमशः काल के प्रभाव से अग पूर्वो के अंश के ज्ञाता आचार्य धरसेन से ज्ञान प्राप्त कर पुष्पदन्त-भूतबली ने पटखण्डागम की रचना की और इसके पश्चात आचार्य कुन्द-कुन्द ने प्राकृत भाषा मे अपने चरित्र पाहुड मे सर्व प्रथम सक्षिप्त श्रावक धर्म का उल्लेख किया है। इसके पश्चात् आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावका चार में स्वामी कार्तिकेय ने कार्तिकेयानु प्रेक्षा में आचार्य रविषेण ने पद्म चरित, आचार्य जिनसेन (द्वितीय) ने महापुराण, अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थ सिद्धयुपाय सोमदेव के उपासकाध्ययन और हरिभद्राचार्य कृत सावयपन्नत्ति मे श्रावक धर्म उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त अमितगति श्रावकाचारवसुनन्दि श्रावकाचार, सावयधम्म दोहा, सागारधर्ममृत धर्मसंग्रह श्रावकाचार, प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, गुणभूषण श्रावकाचार, धर्मोपदेश पीयूषवर्ष श्रावकाचार, लाटी संहिता पचविशतिकागत श्रावकाचार, भावसग्रह अर्धमागधी प्राकृत भाषा मे रचित उपासकाध्ययन आदि श्रावक धर्म निरूपक विशाल साहित्य का सृजन प्राकृत सस्कृत अपभ्रश और हिन्दी भाषाओं में हुआ है। इनके आलोडन से ज्ञात होता है कि जैसे-जैसे श्रावक अपने धर्म के प्रति शिथिल होते गये वैसे-वैसे ही आचार्यो को श्रावकधर्म में संशोधन और परिवर्द्धन करते हुए तत सम्बन्धी साहित्य का सृजन करना पड़ा। वीसवी शताब्दी के आचार्य ज्ञान सागर आचार्य कुन्थुसागर पं कैलाशचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री प डा पन्नालाल साहित्या चार्य डा मोहन लाल मेहता पं हीरा लाल न्यायतीर्थ आदि ने श्रावक धर्म का विश्लेषण एव विवेचन अपनी-अपनी कृतियो मे किया है। (द) श्रावक का अर्थ 'श्रावक' शब्द उतना ही प्राचीन है जितना जैन धर्म है। प्राकृत भाषा मे इसे 'सावग्ग' भी कहते है। सरावगी और सराक श्रावक के ही रूप है। बिहार, वगाल, उडीसा आदि मे सराक नामक जाति का नामकरण श्रावक धर्म का पालन करने से हुआ प्रतीत होता है । आप्टे ने श्रि + ण्वुल' प्रत्यय जोडकर श्रावक शब्द की निष्पत्ति मानी है। लेकिन 'श्रावक' शब्द 'श्रु श्रमण' धातु से बना है। पाणिनी के 'श्रव श्रचे13 सूत्र से 'श्रव' के स्थान पर 'U' होने और वर्तमान काल के एक वचन का प्रत्यय लगाने पर श्रृणोति रुप बनता है । अत सुनने वाले को श्रावक कहते है। लेकिन यह श्रावक का साधारण अर्थ है। जैनागमो मे जिनेन्द्र के उपदिष्ट तत्त्वो के सुनने वालो को श्रावक कहा गया है।14 आचार्य हरिभद्र 15 ने कहा भी है ___ संमत्तदंसणाई पइदियह जइ जणा सुणेई य। सामायरिं परमं जो खलु तं सावगं विन्ती।। अर्थात सम्यग्दर्शन आदि प्राप्त कर जो प्रतिदिन मुनियों से उत्कृष्ट सामाचारी (सज्जनों द्वारा आचारित) साधु एवं श्रावक से सम्बद्ध क्रिया कलाप सुनता है, उसे
SR No.538048
Book TitleAnekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1995
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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