________________
अनेकान्त/३
आगमों के प्रति विसंगतियां
-पद्मचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली-२ णमो अरहंताणं का अपमान क्यों ?
कुन्दकुन्द भारती सस्था के अधिष्ठाता तथा कुदकुंद साहित्य के वहाँ के संपादक ५० बलभद्रजी ने घोषणा की है कि (णमोकार मत्र का) "अरिहंताणं" पाठ ही शुद्ध है और 'अरहंताणं' पाठ खोटे सिक्के की तरह चलन में आ रहा है।" प्राकृत विद्या दिसम्बर ९४ पृष्ट १०-११ ।
उक्त घोषणा से मूलमत्र का अपमान तो है ही, साथ ही इससे लोगो मे मंत्र के प्रति भ्रम की स्थिति होकर मंत्र के प्रति अश्रद्धा भी उत्पन्न हो सकती है । ___ स्मरण रहे कि उक्त सपादक को प्राकृत (स्वाभाविक भाषा)में भी व्याकरण इष्ट है। उक्त संस्था की पत्रिका द्वारा प्राकृत मे व्याकरण होने की पुष्टि मे पहिले भी “वागरण'" शब्द के 'व्याख्या' जैसे प्रासगिक प्रसिद्ध अर्थ का विपर्यास करने का व्यर्थ प्रयास भी किया जा चुका है । (प्रतिवाद देखे- “अनेकात ४७/३) उक्त सपादक प्राकृत व्याकरण में कुदकुद के पश्चातवर्ती बारहवी सदी के वैयाकरण हेमचन्द्र का उल्लेख मान्य करते रहे है । अत अरहंताणं के विषय मे उन्ही आचार्य का मन्तव्य देखे ---
हैमचन्द्राचार्य ने अपने व्याकरण के ८/२/१११ मे एक सूत्र "उच्चार्हति" दिया है उसकी व्याख्या में उन्होने लिखा है "अर्हत शब्दे हकारात् प्राग अदितावुद भवति च । अरहो, अरिहो रूपमरुहो चेति सिद्धयति । अरहंतो, अरिहंतो, अरुहंतो च पठ्यते ।" - इसका शब्दार्थ है-अर्हत शब्द में हकार से पहिले अ, इ और उ हो जाते है, इस प्रकार अरह, अरिह और अरुह रूप सिद्ध होते है-अरहंत, अरिहंत और अरुहत पढ़े जाते है ।
उक्त भाति व्याकरण की दृष्टि से सभी रूप सिद्ध किये गये है । स्मरण रहे कि भाषा पहिले होती है और तदनुसार व्याकरण की रचना वाद में होती है | सिद्ध है कि प्राकृत में ये शब्द पूर्व में प्रचलित रहे--बाद में व्याकरण ने उसकी पुष्टि की । धवलाकार ने स्पष्ट ही दांनो रूपों को मान्यता दी (देखे धवला १ पृष्ट ४४ व टिप्पणी भी)
उक्त सपादक ने अपने कथन की पुष्टि में एकांगी जो प्रमाण दिये है उन्हीं आगमो मे तथा अन्य स्थलो मे भी इस "अरहंताणं" पद की भी पुष्टि की गई है । देखें :