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________________ अनेकान्त/22 लोक-प्रशंसा मनुष्य में सबसे बड़ा अवगुण अपनी प्रतिष्ठा का है। प्राय अधिकांश मनुष्य अपनी प्रशंसा चाहते हैं। प्रशंसा के लिए वे नाना प्रकार के कष्टों को सहन करते हैं। व्रत करें, उपवास करें एक बार भोजन करें। कहाँ तक कहें तिल तुष मात्र परिग्रह भी न रखें। केवल लोग हमको उत्तम कहें ऐसी जिनकी अभिलाषा है उनका यह बाह्य त्याग दम्भ ही है। (३०१४।४७) लोकेषणा बहुत ही प्रबल संसार वर्धक अनात्मीय भावों की जननी है। बहुत ही कम महानुभाव ऐसे होंगे जो इसके रंग से बचे हों। (७-८-४७) शान्ति का मार्ग इस लोकेषणा से परे है। लोक प्रतिष्ठा के अर्थ त्यागवत संयमादि का अर्जन करना धूल के अर्थ रत्न को चूर्ण करने के समान है। सामान्य मनुष्यों की कथा तो छोडो किन्तु जो विद्वान् है वह भी जो कार्य करते है आत्मप्रतिष्ठां के लिए ही करते है। यदि वह व्याख्यान देते है तब यही भाव उनके मन में रहता है कि हमारे व्याख्यान की प्रशसा हो। अर्थात् लोग कहे कि महाराज, आप धन्य है, हमने तो ऐसा व्याख्यान नहीं सुना जैसा श्रीमुख से निर्गत हुआ। हम लोगों का सौभाग्य था जो आप जैसे सत्पुरुषों द्वारा हमारा ग्राम पवित्र हुआ । इत्यादि वाक्यो को सुनकर व्याख्याता महोदय हृदय में प्रसन्न हो जाते है। (२४-६-५१) यदि आज हम लोग प्रशंसा को त्याग देवें तो अनायास ही सुखी हो सकते है। परन्तु लोकेषणा के प्रभाव में हैं। यही हमारे कल्याण मे बाधक है। (२७-१२-५१) (वर्णीवाणी से) संपादकीय लोकेषणा भी परिग्रह में गर्भित है। आज लोकेषणा जैसी व्याधि से समस्त लोक ग्रसित है। श्रावक की तो बात ही क्या? पू०आ० सूर्यसागर महाराज के मत में तो मुनि भी इससे अछूते नहीं बचे। यदि कोई व्यापारी स्व लाभ को भूल जाय और केवल दूसरो को अर्थ अर्जन का उपाय बतलाने के धन्धे में लग जाय तो उसका व्यापार चौपट ही समझिए। वही अवस्था आचार्य महाराज ने अपने कथन में इगित की है और पूज्य वर्णी जी ने भी प्रतिष्ठा-प्राप्ति के कथन में लिखा है। आज तो स्थिति और भी बिगड गई जैसी है। यहाँ तक देखा जा रहा है कि जिस मुनि मुद्रा और मुनि क्रिया को देखकर श्रावक को संसार शरीर और भोग से विराग होना चाहिए। श्रावक को वह विराग नहीं मिल पा रहा अपितु उल्टे श्रावको ने ही विरागी को राग मार्ग मे लगा दिया है। वे भांति भांति के उपकरण (जो नही जुटाने चाहिए) त्यागियों को अपने स्वार्थ साधन आशीर्वाद प्राप्ति के लिए जुटा रहे हैं। श्रावकों को ऐसे कार्यों से विरत होना चाहिए क्योंकि ऐसे सब साधन दिगम्बर मुद्रा के लोप के कारण है। आज के युग में आशीर्वाद का तो नाम मात्र शेष है।
SR No.538048
Book TitleAnekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1995
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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