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अनेकान्त
वर्ष ४८
वीर मेवा मन्दिर :: दरियागंज न दिल्या.
जनवरी-मार्च
१९९५
किरण-१
वीर नि०सं० २५२१ वि० सं० २०५१
मन को सीख 'रे मन, तेरी को कुटेव यह, करन विषै को धावै है । इनही के वश तू अनादि तै, निज स्वरूप न लखावै है ।। पराधीन छिन-छीन समाकुल, दुरगति विपति चखावै है ।। रे मन० ।। फरस विषय के कारन वारन, गरत परत दु.ख पावै है । रसना इन्द्रीवश झप जल मे, कटक कण्ठ छिदावै है ।। रे मन० ।। गन्ध-लोल पकज मुद्रित में, अलि निज प्रान खपावे है । नयन-विषयवश दीपशिखा मे अङ्ग पतङ्ग जरावै है ।। रे मन० ।। करन-विषयवश हिरन अरन मे, खल कर प्रान लुभावै है । दौलत' तज इनको जिनको भज, यह गुरु सीख सुनावै है । रे मन० ।।
- कविवर दौलतराम
भावार्थ-हे मन, तेरी यह बुरी आदत है कि तू इन्द्रियों के विषयो की ओर दौड़ता है । तू इन इन्द्रियो के वश के कारण अनादि से निज स्वरूप को नही पहिचान पा रहा है और पराधीन होकर क्षण-क्षण क्षीण होकर व्याकुल हो रहा है और विपत्ति सह रहा है । स्पर्शन इन्द्रिय के कारण हाथी गढे में गिर कर, रमना के कारण मछली कॉटे मे अपना गला छिदा कर, घ्राण के विषय-गध का लोभी भौरा कमल मे प्राण गॅवा कर, चक्षु वश पतगा दीप-शिखा मे जल कर और कर्ण के विषयवश हिरण वन मे शिकारी द्वारा अपने गण गॅवाता है । अत तू इन विषयो को छोड कर जिन भगवान का भजन कर, तुझे श्री गुरु की सीख है।