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________________ अनेकान्त/३१ की प्रतीति सहित आत्मा के ज्ञान, भाव-भाषित स्व-पर विवेक एवं जिन शास्त्रों के अभ्यास द्वारा पदार्थ के ज्ञान से दर्शन मोह की ग्रन्थि का क्षय होता है इससे स्पष्ट है कि मोह क्षय के लिए आत्म ज्ञान विहीन कषायादिक विभावों को मन्द करने, रोकने या उनके विकल्पों में उलझने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता किन्तु सहज- शुद्ध ज्ञाता-दृष्टा रूप आत्मानुभव एवं शुद्धात्मा की उपलब्धि से मोह क्षय होता है । मोह सरोवर सूखने पर क्रोधादिक कषाय रूपी मगरमच्छों का निरंतरित अस्तित्व भी अल्प कालिक रह जाता है । जयवन्तवों आत्मोपलब्धि/शुद्धोपयोगी आचार्य जयसेन के अनुसार स्वाध्याय के द्वारा आत्मा में ज्ञान प्रगट होता है, कषाय भाव घटता है, संसार से ममत्व हटता है, मोक्ष भाव से प्रेम जगता है । इसी के निरंतर अभ्यास से मिथ्यात्व कर्म और अनन्तानुबन्धी कषाय का उपशम हो जाता है और सम्यग्दर्शन पैदा हो जाता है । प्रवचन सार गाथा ९२ की टीका करते घोषित किया है कि “जयवन्त वर्तो स्यादवाद मुद्रित जैनेन्द्र -शब्द-ब्रह्म और जयवन्तव” शब्द-ब्रह्म मूलक आत्मतत्वोपलब्धि जिसके प्रसाद से अनादि संसार से बन्धी मोह ग्रन्थि तत्काल ही छूट गई है । और जयवन्तवर्तो परम बीतराग चारित्र स्वरूप शुद्धोपयोग जिसके आत्मोपलब्धि द्वारा दर्शन मोह का क्षय तथा शुद्धोपयोग से चारित्र मोह का क्षय होकर आत्म धर्म स्वरूप होता है। मोह प्रन्धि के क्षय का फल ___दर्शन मोह के क्षय से स्वतन्त्र आत्म दर्शन होता है और क्षोभ रहित अनुकूल सुख की प्राप्ति का मार्ग प्रकट होता है । आगम के अनुसार प्रथम दर्शन मोह का क्षय या अभाव होता है, पश्चात शुद्धोपयोगी द्वारा क्रमिक रूप से चरित्र मोह का क्षय हो कर आत्मा की शुद्ध ज्ञान दर्शन पर्याय प्रकट होती है, जो परावलम्बन का नाश कर आत्मा को कर्म-बन्धन से स्वतन्त्र करती है । आचार्य कुन्दकुन्द कहते है कि जो मोह ग्रन्थि को नष्ट करके, रागद्वेष क्षय करके, सुख-दुख मे समान होता हुआ श्रमणता में परिणमित होता है, वह अक्षय सौरव्य अर्थात परम आनन्द को प्राप्त होता है । (प्र०सार १९५) आत्म का ध्यान करने वाले श्रमण, निर्मोही, विषयो से विरक्त, मन के निरोधक और आत्म स्वभाव में स्थित होकर आत्मा का ध्यान करते है । ऐसी शुद्धात्मा को प्राप्त करने वाले श्रमण सर्वधातिया कर्मों का नाश कर सर्वज्ञ सर्व दृष्टा हो जाते है । (१९६-१९७)और तृष्णा, अभिलाषा, जिज्ञासा एवं संदेह रहित होकर इन्द्रियातीत अनाकुल परिपूर्ण ज्ञान से समृद्ध परम आनन्द का अनुभव-ध्यान करते रहते है । (१९८) उनके इस परम आनन्द की तुलना में इन्द्रियजन्य सुख अकिचिंतकर या अकार्यकारी होता है, उसी प्रकार जैसे अंधकार नाशक दृष्टि वाले को दीपक प्रयोजन हीन होता है (गाथा ६७) आत्म श्रद्धानविहीन ब्रत क्रियाएं मोक्षमार्ग में/अकिंचितकर संक्षेप में आत्मा के साथ कर्म-बन्ध मिथ्यात्व, कषाय एवं योग से होता हैं, जबकि कर्म से क्षय का मार्ग प्रशस्त होता है, भेद विज्ञान द्वारा आत्मा में ज्ञान सूर्य के उदय
SR No.538048
Book TitleAnekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1995
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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