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अनेकान्त/३० __अब प्रश्न यह है कि मोह अन्धकार का विनाश कैसे हो और कैसे सम्यदर्शन की प्राप्ति हो । इस प्रश्न के समाधान के ऊपर ही जीवन का मिथ्या से सम्यक रूपान्तरण संभव है । इसके लिए हमें आगम और अध्यात्म शास्त्रों की ओर दृष्टि करनी होगी । इनके मार्ग दर्शन में ही धर्म दर्शन की जानकारी स्वानुभव के साथ त्रिरत्न रूप जीवन का अंग बन सकती है। मोह अन्थि का क्षय - शुद्धात्मा की उपलब्धि
अध्यात्म शास्त्रों में "शुद्धात्मा की उपलब्धि से मोह ग्रन्थि की क्षय" की निष्पत्ति आयी है । इस सूत्र में समूचा मोक्ष समा जाता है | अध्यात्म के आदि कवि आचार्य कुन्द कुन्द ने प्रवचन सार की गाथा १९४ मे इस तथ्य की महत्वपूर्ण घोषणा की है । शुद्धात्मा की उपलब्धि से दर्शन मोह अर्थात मिथ्यात्व की ग्रन्थि का क्षय कैसे होता है, इसे जानने समझने के लिए प्रवचन सार की गाथा १९१ से १९४ तक के भाव को समझना आवश्यक है, जो इस प्रकार है :___"मै पर का नहीं हूँ, पर मेरे नहीं है, मै एक ज्ञान हूँ, जो इस प्रकार ध्यान करता है वह आत्मा ध्यान काल में शुद्धात्मा का ध्याता होता है (गाथा १९१) में आत्मा को ज्ञानात्मक, दर्शन भूत, अतिन्द्रिय, महापदार्थ, ध्रुव अचल, निरालम्बा और शुद्ध मानता हूँ । (गाथा १९२) शरीर, धन, सुख-दुख अथवा शत्रु-मित्र, जीव के ध्रुव नहीं है । ध्रुव तो उपयोगात्मक आत्मा है । (गाथा १९३) जो व्यक्तित ऐसा जानकर विशुद्धात्मा होता हुआ परम आत्मा का ध्यान करता है वह साकार हो या निराकार 'मोह दुर्गन्धि' का क्षय करता है । (गाथा १९४) इससे स्पष्ट है कि शरीर आदि परद्रव्यों एवं विकार-विभाव - भावों से भिन्न शुद्धात्मा का ध्यान करने से मोह ग्रन्थि टूटती है ।
समय सार गाथा ८३ में भी आचार्य कुन्द कुन्द ने क्रोधादिक सर्व की निवृत्ति हेतु इसी मार्ग की पुष्टि की है, जो इस प्रकार है :
"अहमिक्को खलु सुद्धो णिम्ममओणाणदंसण समग्गो । तम्हि ठिदो तच्चित्तो सव्वे एदे खयंणेमि ।। ७३ ।।
अर्थ - निश्चय से मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, ममता रहित हूँ, ज्ञान -दर्शन पूर्ण हूँ, उस स्वभाव में रहता हुआ उस चैतन्य अनुभव में लीन होता हुआ मै उन क्रोधादिक सर्व आश्रवों को क्षय को प्राप्त कराता हूँ।
मोह ग्रन्थि के क्षय हेतु अन्य उपाय भी प्रवचन सार में वर्णित है, जो प्रकारान्तर से एक ही गन्तव्य को ले जाते हैं "जो अरहंत भगवान को द्रव्य गुण और पर्याय रूप से जानता है, वह अपनी आत्मा को जानता है और उसका मोह अवश्य नाश को प्राप्त होता है, क्योंकि अरहंत का इस प्रकार ज्ञान होने पर सर्व आस्मा का ज्ञान होता है (गाथा ८०) "जो निश्चय से ज्ञानात्मक ऐसे अपने को और पर को निज -निज द्रव्यत्व से सम्बद्ध जानता है वह मोह का क्षय करता है । इस प्रकार शुद्धात्मा की उपलब्धि, अरहंतभगवान