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________________ अनेकान्त/१३ में घर त्याग कर दिगम्बर मुनि हो गये थे । बारह वर्षों की तपस्या के पश्चात उन्हें केवल ज्ञान हुआ और ५२७ ईसा पूर्व उन्हें पावापुर में मोक्ष प्राप्त हुआ । उस समय उनकी आयु ७२ वर्ष की थी। आचार्य परम्परा भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात जैन धर्म की ज्योति आचार्य परम्परा के रूप में अविरल जलती रही । उनके गणधर गौतम स्वामी ने केवली पद प्राप्त कर १२ वर्षो तक जैन धर्म का प्रचार किया । उनके पश्चात् सुधर्माचार्य केवली पद पर प्रतिष्ठित रहे और उसके बाद इस युग के अन्तिम केवली जम्बूस्वामी ने ३८ वर्षों तक धर्म प्रचार करके मथुरा चौरासी से मोक्ष प्राप्त किया जहाँ उनके चरण चिन्ह आज भी स्थापित है ।। इसके पश्चात् पाच श्रुत केवलियो का काल-क्रम इस प्रकार रहा है । आचार्य विष्णु १४ वर्ष आचार्य नन्दी मित्र १६ वर्ष आ. अपराजित २२ वर्ष, आ. गोवर्द्धन १९ वर्ष तथा श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु २९ वर्ष तक धर्म प्रचार करते रहे । सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्यने इन्ही से मुनि दीक्षा ली थी । आचार्य भद्रबाहु के गुरू का नाम गोवर्द्धन आचार्य था । श्वेताम्बर जिन आचार्य भद्रबाहु की श्रवणबेलगोला के स्थान पर नेपाल जाने की चर्चा करते है वह श्रुतकेवली भद्रबाहु से सर्वथा भिन्न थे क्योकि उन आचार्य भद्रबाहु का समय श्रुतकेवली भद्रबाहु के ४०० वर्ष बाद का है । हरिषेण कृत कथा कोश में श्रुतकेवली भद्रबाहु का आख्यान इस प्रकार आया है कि मध्य भारत में १२ वर्ष के दुष्काल के आभास पर सभी मुनियो को दक्षिण की ओर विहार करने का परामर्श उन्होने दिया क्योकि दक्षिण में जैन परिवार सम्पन्न थे और उनकी संख्या भी अधिक थी। मुनि संघ दक्षिण की ओर विहार कर गया किन्तु राम्मिल, स्थविर और स्थूलभद्राचार्य अपने शिष्यो के साथ सिन्धु प्रान्त मे ही रह गये । श्रुतकेवली भद्रबाहु ने (भगवान महावीर १६२ वर्ष बाद) विशाखाचार्य को आचार्य पद देकर समाधि पूर्वक श्रवणवेलगोला के चन्द्रगिरि पर्वत पर अपने शरीर का त्याग कर दिया । चन्द्रगिरि पर्वत पर उनके चरण चिन्ह स्थापित किये गये जो आज भी वहां मौजूद है । वहां से प्राप्त शिलालेखों में श्रुतकेवली भद्रबाहु के साथ अन्य दिगम्बर साधुओं की चर्चा कई रूपों मे अकित है। सुभिक्ष होने पर मुनि संघ विशाखाचार्य के साथ मध्य भारत वापस आ गया । श्वेताम्बर आम्नाय का प्रचलन स्थूलभद्राचार्य आदि ने सिन्धु देश से वापस आकर बताया कि वहां के श्रावक दुर्भिक्ष पीड़ितो के भय के कारण रात्रि मे भोजत करते थे । श्रावको के अनुरोध पर मुनि भी पात्र में रात्रि को आहार लाकर दिन मे भोजन करने लगे । उन्होंने एक रात्रि की घटना इस प्रकार बतायी कि एक कृशकाय दुबले-पतले मुनि रात्रि के अंधेरे में आहार के लिए
SR No.538048
Book TitleAnekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1995
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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