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अनेकान्त/30
जोयनिहाणं सारं वज्जरिमो मे समासेण।।1।। प्राकृत वैधिक में कुल 257 गाथाए है तथा योग निधान मे कुल 108 गाथाए है। पर प्राकृत वैद्यक मे योगनिधान की भाति अध्यायो का वर्गीकरण नही है इसमे तो विभिन्न रोगो के उपशमन हेतु विभिन्न औषधियो के प्रयोग निबद्ध है।
अपना नामोल्लेख करते हुए कृतियो को गाथाबद्ध रचने हेतु कवि ने निम्न गाथा दी है -
गाहांबंधे विरयममि देहीणं रोयणासणं परमं ।
हरिवालो जं बुल्लई त सिज्झइ गुरु पसायणं ।।2।। रचना की समाप्ति करते हुए कवि अपनी अज्ञता और मंदबुद्धि के लिए बुद्धिमन्तों से क्षमा याचना करते हुए विनय प्रकट करता है तथा अपने कर्तृत्व को प्रस्तुत करता है
हरिवालेण य रयियं पुव्व विज्जोहिं जं जिणिद्दिडं। बुहयण तं महु खमियहु हीणहियो जं जि कव्वोय।। 25611 इस कृति के रचनाकाल को प्रस्तुत करते हुए कवि निम्न गाथा लिखता है
विक्कम णरवइकाले तेरसय गयाइं बयताले। (1341) सिय पोसट्ठमि मंदो विजयसत्थों य पुणोया।। 257।।
इति पराकृत (प्राकृत) वैद्यकं समाप्तम् । विस्मय की बात है कि कवि जैन होते हुए भी मधु और मूत्र प्रयोगो का उल्लेख बहुलता से करता है, नरमूत्र का प्रयोग भी लिखा है। हो सकता है कि आगे आयुर्वेदीय सिद्धान्तो का महत्व अधिक रहा हो और धर्मिक दृष्टि गौण कर दी हो, यही भी संभव है कि स्थान भेद के कारण उपर्युक्त प्रयोग ज्यादा अनुचित न समझे जाते हों, अभी पं. मल्लिनाथ जी शास्त्री मद्रास की पुस्तक से ज्ञात हुआ कि तमिल प्रान्त मे लौकी (घिया) अभक्ष्य मानी जाती है बहबीज के कारण जबकि उत्तर भारत में वह मुनि आहारके लिए उत्तम साग माना जाता है। ऐसा ही कोई विवाद उपर्युक्त प्रयोगों के सबध मे रहा हो । स्व मोरारजी भाई स्वमूत्र को चिकित्सा और स्वास्थ्य के लिए आम औषधि मानते थे, गुजरातमे यह प्रयोग बहुत प्रचलित है। गर्भ निरोधक औषधि के लिए भी एक गाथा लिखी है।
गाथा संख्या 255 से ज्ञात होता है कि कवि के समख योगसार नामक कोई आयुर्वेदीय ग्रथ रहा होगा जिसके खोज की आवश्यकता है। हो सकता है यह ग्रंथ हरिपाल की ही कृति हो अथवा संभव है किसीअन्य की कृति का उल्लेख हो यह शोध का विषय है। यहां हम प्राकृत वैद्यक की 16 गाथाएं अविकल रूप में प्रकाशनार्थ प्रस्तुत कर रहे है शेष गाथाएं अगले अंकों में क्रमशः प्रकाशित करावेंगे। कृपालु पाठकों से निवेदन है कि मूल ग्रंथ को मेरी अनुमति के बिना प्रकाशन की दुश्चेष्टा न करें ना ही इसके अनुवादादि का कार्य मेरी लिखित स्वीकृति के बिना किया जावे।