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________________ अनेकान्त/29 पत्र पर पंक्तियो की सख्या 15 है तथा प्रत्येक पंक्ति मे अक्षरो की सख्या 32 33 है। गुटके की लिपि अति सुनदर और अत्यधिक सुवाच्य है । काली और लाल स्याही का प्रयोग किया गया है। सबसे बड़ी विशेषता इसमे विराम चिन्हो के प्रयोग की है जो हमने अभी तक अन्य पाडुलिपियो मे नही देखी है, यद्यपि हमने हजारो पांडुलिपियों का सर्वेक्षण कर Discreptive Catalogue तैयार किए है जिनका एक भाग 'दिल्ली जिन ग्रन्थ रत्नावली' के नाम से प्रकाशित है शेष 7 8 भाग प्रकाशन के लिए तैयार है। विराम चिन्हों का प्रयोग इस गुटके की अति विशिष्टता है। इस गुटके के बीच में कुछ पत्र अत्यधिक जीर्णशीर्ण हो गये हैं। किसी तरह पानी में भीग जाने के कारण बहुत से पत्र आपस में चिपक गये हैं जिनको बडी सावधानी और परिश्रम से पृथक-पृथक करना पड़ा है फिर भी अभी कुछ पन्ने तो चिपके पडे है जिन्हें पृथक्-पृथक् करना ही होगा पर डर लगता है कि पत्र टूटकर फट न जावें। सबसे बड़ा दुख इस बात का है कि इस गुटके के आदि और अंतिम पत्र प्राप्त नही है। अतिम पत्र तो अत्यन्त महत्वपूर्ण है जिसमे लिपिकर्ता, लिपिकाल तथा प्रशस्तिवाचक सामग्री विद्यमान होती है। इस पत्र मे ऐतिहासिक तथ्यो की जो जानकारी मिलती उससे हम वञ्चित रह गये है। यह हम लोगों की असावधानी और प्रमत्तता का ही परिणाम है। लिपिकार प्राकृत और पराकृत शब्दो के अन्तर से अनभिज्ञ रहा अतः उसने "प्राकृत वैद्यक" को पराकृत वैद्यक लिख दिया है। प्राकृत वैद्यक नाम कृति गुटके के पत्र सख्या 391 से प्रारंभ होकर पत्र संख्या 407 II पर समाप्त होती है। पर बीच में पत्र संख्या 401 पर पराकृत वैद्यक लिख समाप्तम् लिखकर “णमिऊण वीयरायं गाथा लिखकर योगनिधान वैद्यक नामक दूसरी रचना की सूचना देता है और 108 गाथाएं लिखकर पुनः पराकृत वैद्यक समाप्तम् लिखता है। इससे विदित होता है कि प्राकृत वैद्यक केवल एक ही रचना हो और योगनिधान इसका दूसरा भाग हो? पर यदि योगनिधान को प्राकृत वैद्यक भाग माना जाय तो फिर ‘णमिऊण वीयराय वाली मंगलाचरण स्वरूपी गाथा का उपयोग क्यो किया गया है? दूसरे मगलाचरण मे स्पष्ट विदित होता है कि योगनिधान एक स्वतत्र रचना है और प्राकृत वैद्यक एक स्वतत्र रचना है, यद्यपि योगनिधान मे प्राकृत वैद्यक की भाति रचनाकार का नाम तथा रचनाकाल आदि का कोई उल्लेख नहीं है अतः हमें दोनों कृतियो पर दो भिन्न भिन्न निबध लिखने पड़ रहे है। इन दोनों कृतियों की विशेषता है कि ये प्राकृत भाषा मे निबद्ध हैं और रचनाकार जैन है और दिगम्बरी है और विषय तो आयुर्वेद से संबंधित है ही। प्रमाणस्वरूप दोनों रचनाओं के दोनों मंगलाचरण है, जिसमें जिनेन्द्र भगवान रूपी वैद्य को प्रणाम किया गया है। णमिऊण जिणो बिज्जे भवभमणे वाहि फेऊण मत्थो। पुणु विज्जयं पयासमि जं भणिय पुव्वसूरीहि !|1|| योगनिधान का मंगलाचरण निम्न प्रकार है जिसमें वीतराग प्रभु की वंदना की गई हैं : णमिऊण वीयरायं जोयविसुद्धं तिलोयउद्धरणे।
SR No.538048
Book TitleAnekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1995
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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