________________
१८ वर्ष ३६, कि. ३
अनेकान्त
टीका आदि ग्रंथ लिखे थे, यदि अहहास आशाधर के तीनों ग्रंथों की प्रशस्तियां देना असमीचीन न होगा। मुनिअन्तिम समय में उनके पास पहुंचे तो उनका स्थान अवंती सुव्रत काव्य का अन्तिम पद हैप्रदेश मानना होगा किन्तु समुचित प्रमाणों के अभाव में मिथ्यात्व कर्मपटलैश्चिरमावृते मे कुछ निश्चित लिख पाना सभव नही है।
युग्मे दृशो, कुपथयाननिदानभूते । श्री नाथूराम प्रेमी ने मदनकीर्ति यतिपति के ही
आशाधरोक्तिलसदजन संप्रयोगेअहंदास बन जाने का अनुमान लगाया है। मदनकीर्ति
रच्छीकृते पृथलसत्पथमाश्रितोस्मि। यतिपति, वादीन्द, विशाल कीर्ति, जिन्होंने पं० आशाधर से
अर्थात् मेरे नयनयुगल चिरकाल से मिथ्यात्वकर्म के न्यायशास्त्र पढ़कर विपक्षियों को जीता था, के शिष्य थे। पटल से ढके हुए थे और मुझे कुमार्ग में ले जाने के कारण वि. स. १४०५ में रचित राजशेखरसूरि के "चतविशति थे । आशाधर के उक्तिरूपी अंजन के प्रयोग से स्वच्छ
कीर्तिप्रवन" नाम का एक न होने पर मैंने जिनेन्द्र भगवान के सत्पथ का आश्रय लिया, जिसमें मदन कीर्ति के कर्णाटक जाकर विजयपुर नरेश इसी प्रकार पुरूदेव चपू का अन्तिम पद्य हैकुन्तिभोज की सभा में काव्य-रचना करने और उनकी मिथ्यात्वपककलुषे मम मानसेस्मिन् पुत्री में विवाह करने का वर्णन है। मदनकीति का बनाया
आशाधरोनितकतक प्रसरैः प्रसन्ने । "शासनचतुरिशिका" ग्रंथ उपलब्ध है । प्रेमी जी ने उल्लासितेन शरदा पुरु देवभक्त्या लिखा है-"चतुर्विशति कथा को पढ़ने के बाद हमारा
तच्चंपु दंभजलजेन समुज्जजृम्भे ॥ यह कल्पना करने को जी अवश्य होता है कि कही मदन- अर्थात जो पहले मिथ्यात्वरूपी पंक से मलिन था कीर्ति ही कूमार्ग में ठोकरे खाते-खाते अन्त मे आशाधर तथा पीछे चलकर आशाधर जी के सुभाषित रूपी कतक की सुक्तियों से अईहास न बन गए हो । पूर्वोक्न ग्रन्थों में फल के प्रभाव में निर्मल हो गया ऐसे मेरे इस मानसमन (पुरूदेवचम्प आदि में) जो भाव व्यक्त किये गए है, उनमे रूपी मानसरोवर मे पुरूदेव जिनेन्द्र की भक्तिरूपी शरद इरा कल्पना को बहुत कुछ पुष्टि मिलती है और फिर यह ऋतु के द्वारा उल्लास को प्राप्त हुआ यह पुरूदेवचंपू रूपी अर्हदास नाम भी विशेषण जैसा ही मालूम पडता है। कमल वृद्धि को प्राप्त हुआ है। सभव है उनका वास्तविक नाम कुछ और ही रहा हो, यह
इन दोनो पद्यों से इतना तो स्पष्ट है कि उहंद्दस नाम एक तरह वी भावुकता और विनयशीलता ही प्रकट
की दृष्टि या मानस आशाधर की सूक्तियो से निर्मल हुआ करता है।"" पृष्ट प्रमाणी के अभाव में इ7 मन को भी
था पर उनके साक्षात शिष्य होने का प्रमाण नही मिलता, वास्तविक रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। भव्य जनकण्ठाभरण का यह पद भी द्रष्टव्य है--
पण्डित आश धर महान विद्वान होते हुए भी मुनि सूक्त्येव तेषा भरभीरवो ये गहाथमस्थाश्चरितात्मघर्माः । नही बने अपितु उन्होंने मुनियो के चरित्र में पनप रही तएव शेषाश्रमिणा सहाय्या धन्याः स्युराशाधरसूरिमुख्याः।' तत्कालीन शिथिलता की कड़ी आलोचना की है, वे गृहस्थ
अर्थात् उन आचार्य वगैरह के सद्वचनों को सुनकर पण्डित थे अत: उनके शिष्य अहंद्दास का भी पण्डित होना
ससार से डरे हुए जो गृहस्थाश्रम मे रहते हुए आत्मधर्म सभव है। डा. गुलाबचन्द्र चौधरी ने अहंदास को गृहस्थ
का पालन करते है और बाकी के ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ तथा पण्डित ही माना है।
साधु आश्रम में रहने वालो के सहायक होते हैं वे आशाआशाधर का शिष्यत्व :
घर सूरि प्रमुख धन्य है। यह विवादास्पद विषय है कि महाकवि अहंदास पंडित इस पद्य के आधार पर डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने आशाधर के साक्षात शिष्य थे या नहीं । उन्होने अपने लिखा है कि "इस पद्य मे प्रकारान्तर से आशाधर की तीनों ग्रन्थों की प्रशस्तियो में पण्डित आशाधर का नाम प्रशंसा की गई है और बताया गया है कि गृहस्थाश्रम में बडे आदर और सम्मान के साथ लिया है। अतः यहाँ रहते हुए भी वे जैन धर्म का पालन करते थे तथा अन्य