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कर्णी-वाणी-स्मरण
-संसार में जहां परिग्रह होता है वही पारस्परिक सौमनस्य की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है। अत: मनुष्यों ने विचार किया कि जब परिग्रह अनर्थ का मूल है तब इसे ऐसे कार्यों में लगाओ जहां इसके द्वारा अशान्ति न हो। परन्तु यह तो जिस परिणाम का है, जहाँ गया अपना कार्य करेगा। और की कथा छोड़ो, मन्दिर मे गया तो वहां पर भी इसने अपना राजमाया । मन्दिर के निधि-रक्षक के हृदय में ऐसा अभिमान उत्पन्न किया कि "मैं मन्दिर का खजाञ्ची हूं।" फूलकर कुप्पा हो गया। (२०-१-५१)
-द्रव्य अनर्थकारी है परन्तु मन्दिर का द्रव्य तो सबसे अधिक अनर्थकारी है। जो मनुष्य मन्दिर के द्रव्य का स्वामी बन जाता है वह शेष को तुच्छ समझने लगता है और जो मन्दिर का द्रव्य जिसके हाथ में रहता है उसको अपना समझने लगता है । परिणाम यह होता है कि समय पाकर दरिद्र बन जाता है और अन्त में जनता की दृष्टि में उसकी प्रतिष्ठा नहीं रहती। अतः मनुष्यता की रक्षा करने वाले को उचित है कि मन्दिर का द्रव्य कभी भी अपने निजी उपयोग में न लावे। द्रव्य वह वस्तु है जिसके वशीभूत होकर मनुष्य न्यायमार्ग से च्युत होने की चेष्टा करने लगता है। (१०-३.५३)
-वासना में अनेक प्रकार के सकल्प रहते है जो प्रायः प्रत्येक मनुष्य के अनुभव में आ रहे हैं। यही कारण है जो लोक मे प्राय: सभी दुःखी देखे जाते हैं। सुख का अनुभव उसी को होगा जो सब चिन्ताओ से रहित हो जावे। अन्य की कथा छोडो जो घर छोड देते हैं वे भी गृहस्थो के सदश व्यग्र रहते है । कोई तो केवल परोपकार के चक्र मे पड़कर स्वकीय ज्ञान का दुरुपयोग कर रहे है । कोई हम त्यागी है, हमारे द्वारा संसार का कल्याण होगा ऐसे अभिमान मे चर रहकर काल पूर्ण करते हैं। (३१-५-५१)
-यदि अन्तरग गृद्धता है तब त्यागी होना समाज को भार है। आत्मा ज्ञाता-दृष्टा है, इसका उपयोग करो। उसमे हर्ष-विपाद मत करो; अन्यथा वह उ.य जो आया है, निर्णि होकर भी आगामी बन्ध का जनक होगा। जैसेगज स्नान तो करता है; स्नान में पूर्व धूलि का सम्बन्ध विलग हो जाता है। परन्तु फिर नवीन धलि का संडके द्वारा सम्बन्ध कर लेता है और प्राचीन दशा का भोक्ता होता है। (आपाढ सुदी ५)
-शान्ति का मार्ग इस लोकेषणा से परे है। लोक प्रतिष्ठा के अर्थ त्याग व्रत सयमादि का अर्जन करना धूल के अर्थ रत्न को चर्ण करने के समान है। पचेन्द्रिय के विषयो को सुख के अर्थ सेवन करना जीवन के लिए विष भक्षण करना है। जगत के मनुष्य आत्मीय स्वार्थ के लिए ही कोई कार्य करते है । यह कोई निन्दा की बात नही । सामान्य मनुष्यो की कथा तो छोडो किन्तु जो विद्वान् है वह भी जो कार्य करते है आत्मप्रतिष्ठा के लिए ही करते है । यदि वह व्याख्यान देते है तब यही भाव उनके हृदय में रहता है कि हमारे व्याख्यान की प्रशंसा हो अर्थात् लोग कहें कि महाराज ! आप धन्य है, हमने तो ऐसा व्याख्यान नहीं सुना जसा श्रीमुख से निर्गत हुआ। हम लोगों का सौभाग्य था जो आप जैसे सत्पुरुषों द्वारा हमारा ग्राम पवित्र हुआ। ग्राम ही नही आज हम लोगो के गृह आपके चरणस्पर्श से पवित्र हो गये। महान पुण्य का उदय होता है तभी आप जैसे महात्माओ का मिलाप होता है। इत्यादि वाक्यों को सुनकर व्याख्याता महोदय हृदय मे प्रसन्न हो जाते है। (२४-६-५१)
-आजकल सब मनुष्य नेता बनने के प्रयास मे हैं । जो मनुष्य आत्मीय गुणो का विकास करने में असमर्थ है, निरन्तर व्यन रहता है, जिसका कोई लक्ष्य नही ऐसा उद्देश्य शून्य मनुष्य क्या उपकार करेगा ? जो स्वयं दरिद्र है वह पर का पोषण क्या करेगा ? जो स्वय अन्धा है वह पर को मार्ग नही दिखा सकता। इसी तरह जो स्वयं आत्मज्ञानशुन्य है वह पर के हित की वार्ता क्या करेगा? (२६-७-५१)
(वर्णी-वाणी भाग ३ से साभार)