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३९, कि०२
अनेकान्त
हर निकाले भी जा चुके थे। ऐसे लोगो की दृष्टि मे ऐसी अधिकाश संस्थाएँ किन्हीं कमेटियों के अधीन होती हमारा सुकार्य अक्सर कुकार्य होता था। हम आश्वस्त रहे। है। और कमेटियो के सदस्यों के चुनाव, संस्था की कार्य
एक जगह तो रुष्ट होकर अधिकारी ने बड़े रोब से विधि या तदनुकूल योग्यता पर आधारित न होकर जन दया भाव दिखाते हुए कहा--पडित जी, आपको निकाल या धन शक्ति के साथ होते हैं। और ये शक्तियां अपने कर हम आपका रिकार्ड खराब नहीं करना चाहते, अच्छा
स्वभावानुसार संस्था की कार्य विधि में जन, धन शक्ति हो आप इस्तीफा दे दें। हमें उनकी बुद्धि पर तरस आया
की बढ़वारी सोचने तक सीमित रह जाती है-संस्था के कि उन्हें यह नही मालूम कि उनकी खुद की कीमत क्या उद्दश्या का पूति से इन्हें प्रयोजन नहीं रहता। कई सदस्य 7 जो समाज की सम्पत्ति पर चौधरी बने बैठे है और तो यह भी सोचते हों कि सस्था में उनके जन अधिकारों
संस्था की चल-अचल सम्पत्ति पर उनके जन और उनका जिनके निकालने से हमारा रिकार्ड खराब हो जायगा।
पूरा अधिकार हो और पीढ़ी दर पीढी रहता रहे, तो हमने कहा-आपकी मर्जी है तो हमे निकाल दीजिए। बस उन्होंने हमे निकाल दिया। और हमारा रिकार्ड बना
आश्चर्य नही। धन और जन शक्ति अपने अधिकारत्व में
रखने की ऐसी दौड़ में कही कही तो केवल हाथ उठाऊ ही रहा, जब कि कुछ वर्षों के बाद सस्था के चुनाव में वे
लोग तक सदस्यो मे चुने जाते रहे हो तब भी आश्चर्य अपना रिकार्ड गँवा चुके । हम अभी तक के जीवन में जैन संस्थाओं में हैं, रहे और रहेंगे। संस्थाए हमारा जीवन है।
नही। ऐसे मे संस्थाएं धीरे-धीरे विवाद बन जाती है और
कई समझदार उनसे हाथ खींच लेते हैं। संस्था में भाग न हमें खुशी हुई कि सांकेतिक सस्था के तत्कालीन
लेने तक जो शान्त होते है वे अशान्त हो जाते है। मुख्याधिकारी ने हमारी बात गौर से सुनी और हमे 'दाद' दी। उनके बाद जब तक हम उस सस्था में रहे वहा ऐसा सर्वथा ही होता हो-यह भी नहीं है। हमने ताश खेलना सिगरेट पीना, आदि जैसे निद्य कार्य नहीं हुए ऐसे अधिकारियो के साथ भी काम किया है जो संस्था से बोर ना ही संस्था क्लव रूप मे लोगा का अड्डा रही--- निस्पृही, सेवाभावी और हमारे (विद्वान) पद के प्रति सदा जैसे पहले थी। ये सब मुख्याधिकारी को समझदारी से विनम्र रहे हों। और ऐसो के पास भी काम किया जिन्हें
अपने काया से फुसत नहीं और जो बात-बात मे ताना होगी।
मारते हों "हम कोई नोकर तो नहीं है, हमे तनख्वाह थोड़े प्रसंग वश हम 'जैन स्तोत्र' निर्वाणकाण्ड का म्मरण ही मिलती है आदि।" करा दें। इसके पढ़ने से जैन की प्राचीन आधुनिक दणाएं
तात्पर्य ऐसा कि सस्थाओं मे योग्य-अयोग्य सभी तरह सामने आ जाती हैं। पाठक सोचे. तब धर्मात्माओ
के लोग आते रहते है। प्रयत्न होना चाहिए कि योग्य लोग निष्परिग्रहियों की कितनी सख्या थी एक-एक संघ में
सस्थाओं की बागडोर संभाले और यह चुनाव विधि पर हजारों मुनिराज होते थे और मोक्ष जाने वालो की संख्या
निर्भर है कि किस प्रकार उपयुक्त, योग्य और उदार व्यक्ति भी सैकड़ों में होती थी। सघरूपी सस्थाओ के कर्णधार
का चुनाव हो। फलतः ऐसे व्यक्ति की क्या परख हो, इसे तीर्थकर और आचार्य अपने आदर्शो मे आदर्श थे। उन
सभी को देखना होगा। अन्यथा, जन साधारण के लिए संस्थाओं से आज की सस्थाओ की तुलना कीजिए। तब
आज की अधिकांश-संस्थाएँ प्राय: इंट, पत्थर, चूने और पूरी बागडोर कर्मठो के हाथों थी और अब गाहे-बगाहे दूध
धन के ढेर जैसी चल-अचल सपत्ति मात्र बनकर रह गई की रखवाली बिल्ली के हाथ जाना भी अपवाद नही ।
है और कतिपय जन उन्है बात्मसात् किए बैठे हों तब भी बुरा न मानें। यहां हम व्यक्तिगत सस्थाओं की बात आश्चर्य नहीं। ऐसे लोगों की दृष्टि में सस्थाओं की परिनहीं कर रहे और कहने के अधिकारी भी नहीं। हमारा भाषा ही बदली होगी। अस्तु, "जो जो देखी वीतराग ने, प्रयोजन उन संस्थाओं से है जो सामाजिक धरोहर है। सो सो होमी वीरा रे।"