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पं० शिरोमणिदास कृत : 'धर्मसार सतसई'
0 श्री कुन्दनलाल जैन प्रिन्सिपल, दिल्ली
जय चतुर्ष संधि प्रारम्यतेचौपाई-श्रेणिक सुनह कर्म उतपाति,
___जाते जीव होय बहु भांति । ऊंच नीच बह दुख को धरता,
आपुही कर्ता आपुही भुक्ता ॥१ पुण्य पाप जब करनी कर,
ऊंच नीच पदवी तब धरै । करहि पाप जो मन वच काय,
मगन होय आग मद पाय ॥२ इन्द्रियन पंच विषय रस पर्ग,
विकथा व्यसन कषायनि लगे। करि मिथ्यात्व पंच दुखदाय,
ए छत्तीस प्रकृति सुनि राय ॥३ छत्तीस प्रकृति को बंधन कर,
तब जीव इतर निगोद पद घरं । भाव कलंक गहै अति जास,
यात निगोद न मुंचइ वास ।।४ जनम मरण दुख सहं अति भयो,
अनंतकाल जीव भ्रमतनि गयो। बठारह मरण जनम जीव लहै,
एक स्वास में, जिनवर कहै ॥५ पोहा-छयासठ सड्स अरु तीन सौ पुनि छत्तीस बखानि ।
अंतर्मुहतं एक में निगोद मरण जीव जानि ॥६ काम अनंतानंत जु लहै निगोद दुख जो केवली कहै। तिनसौं दुख कहो नहिं जाय,
मैं मनुष्य कंह कहऊ बनाय ॥७
॥ इति निगोद दुख ॥ चौपाई-पर जीव मारे अपने हेतु,
करि हिंसा पुनि औरनि देत । पोरी मुठ भुगते पर नारी,
बहु आरंभ कर अति भारी॥८ क्रोध लोभ माया मद साधि,
अनंतानुबंधी प्रकृति ते वांधि । लेण्या कर्म कर संताप,
रौद्रध्यान करि बांधे पाप | ऐसो कर्म जीव जब करे,
तब जीव जाय नरक पद धरै। बहुत दुख भुगतै तहं घोर,
___को बुध कहै न जानहुं ओर ॥१० सात नरक हैं दुख की खानि,
तिनके नाम जु कहौं बखानि । घम्मा कहि पुनि वंसा नाम,
मेघा अंजन है दुखदाय ॥११ अरिठा मघवी माधवी सात,
उपजे जीव गलित तहं गात । तेग गेरा पाथरे (डे) सुनिज,
नव पुनि सात पांच जे मुनिज ॥१२ तीन एक जानो दुखदाई,
अब सुन बिले कहौं समुझाई। तीस लाख पहले अथ जानि,
पुनि पच्चीस लाख दुख दानि ॥१३ तीसरे पन्द्रह लाख जु कहीज'
चौथे पुनि दश लाख जु भणिज । पांचइ तीन लाख अति सुन,
छटै एक लाख पञ्चानवे ॥१४ सात पांच लाख बिले अति घोर,
सर्व लाख चौरासी जोर(ड)। मात धनुष पांच सौ देह,
अधं हीन पुनि छटै जु एह ॥१५