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________________ महापाप : परिग्रह परिग्रह को लोक मे हिंसादिक पापों की दृष्टि से नहीं देखा जाता, सभी उसकी चकाचौंध में फंसे हैं, सभी उसके इच्छुक है और सभी अधिकाधिक रूप से परिग्रहधारी बनना चाहते हैं। ऐसे अपरिग्रही सच्चे साधु भी प्रायः नदीं हैं जो अपने आचरण-बल और सातिशय वाणी से अपरिग्रह के महत्त्व को लोक-हृदयों पर भले प्रकार अंकित कर सकते- उन्हें उनकी भूल सुझा सकते, परिग्रह से उनकी लालसा, गद्धता एवं आसक्तता को हटा सकते, अनासक्त रहकर उसके उपभोग करने तथा लोकहितार्थ वितरण करते रहने का सच्चा सजीव पाठ पढ़ा सकते। कितने ही साध तो स्वयं महापरिग्रह के धारी हैं--मठाधीश, महन्न-भट्टारक बने हुए है, और बहुत से परिग्रह भक्त मेठ साहूकारों को केवल हाँ में हाँ मिलाने वाले है, उनकी कृपा के भिखारी है, उनको असत् प्रवत्तियों को देखते हुए भी सदैव उनकी प्रशंसा के गीत गाया करते है-उनको लक्ष्मी, विभूति एवं प िग्रह की कोरी सराहना किया करते हैं । उनमें इतना आत्मबल नहीं आत्मतेन नही, हिम्मत नही, जो ऐसे महापरिग्रही धनिकों की आलोचना कर सक-उनको त्याग-शन्य निग्गल धन-दोलन क संग्रह की प्रवत्ति को पाप या अपराध बतला सके। इस प्रकार जब सभी परिग्रह की की। मे थोड़े बहुन धंसे हुए हैं- सने हुए है, तब फिर कौन किसी की तरफ अंगुली उठावे और उसे अपराधी अथवा पापो ठहरावे? ऐसो हालत में परिग्रह को आमतौर पर यदि पाप नही समझा जाता और न अपराध ही माना जाता है तो इसमें कुछ भी आश्चर्य नही है। X परिग्रह के होने पर उसके संरक्षण अभिवर्धनादि की ओर प्रवृत्ति होती है। सरक्षणादि करने के लिए अथवा उममें योग देते हुए हिंसा करनी पड़ती है, झूठ बानना पड़ता है, चोरी करनी होती है, मैथनकम में चित्त देना पडता है, वित्त विक्षिप्त रहता है, क्रोधादिक व.पाय जाग उठती है, राग-द्वेषादिक सताते है, भय सता धेरे हिना है, गैबध्यान बना रहता है, तृष्णा : द जाती है, आरम्भ बढ़ जाते है, नष्ट होने अथवा क्षति पहुंचने पर शोर-गन्ताप आ दबात है. चिन्ताओं का तांता लगा रहता है और निराकुलता कभी पास नहीं फटनी। ___ मैंने अपनी जरूरत से धिक परिग्रह का सचय करके दूसरों को उसके भोग-उपभोग से वंचित रखने का अपराध किया है, उसके अर्जन-वर्धन रक्षणादि में मुझ कितने ही पाप करने पड़े है. उसका निरर्गल बढ़ते रहना पापका-आत्मा के पतन का कारण है। x "परिग्रह को ग्रह-पिशान के सदश समझ कर, जो उसका अतिसंग- अत्यासक्ति को लिए हुए सेवन या अतिसंचय-नही करता और आवश्यकता से अधिक परिग्रह का दान करके अपने आत्मा मे शुद्धि बनाये रखना है वही ससार में मुखी तथा वृद्धि को प्राप्त होता है।" -पं० जुगल किशोर 'मुस्तार' के विचार
SR No.538039
Book TitleAnekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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