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________________ होने से श्रुतकेवली और परम्परित आचार्यों में मानना क्या होगा? वे कसे स्वाध्याय करेंगे? क्या उन्हें मन्दिरों होगा-जबकि हम ऐसा मानने को तैयार नहीं । फलतः- मे धर्म सूनाने-पढाने के लिए पडितों का निर्माण करना पड़ेगा? सभी जानते है कि इस युग में पंडितों की संख्या हमारी दृष्टि में विवाद शान्त करने और आगम को में ह्रास हो रहा है । सभी बाते सोचने की है। स्बस्थरूप में सुरक्षित रखने का एक ही उपाय है कि मदिरों में मूल के सिवाय कोई भी वह कृति न रक्खी उक्त स्थिति के अनुसार यदि हम तीन मंत्रों को अपना जाय जो किन्ही परम्परित आचार्यवर्य की न हो। किन्त ले तो समस्या हल हो सकती है । वे मंत्र - ऐसी प्रक्रिया से अनुवादकगण सहमत हो सकेगे और वे १. विसर्जन-अनुवादक और व्याख्याकार आचार्यपदअपने लेखन को आगम-बाह्य होने जैसे तथ्य को स्वीकार प्राप्ति के मोह का विसर्जन करें। कर सकेंगे, इसमें सन्देह है। दूसरी समस्या यह है कि २. अन्वेषण -नेतृत्व के मोही नवीन उपयोगी अन्य काय विवाद-शान्त होने पर नेतागण को क्या काम रह जायगा? का अन्वेषण करें। उन्हें तो काम चाहिए, वे कोई दूसरा मोर्चा संभाल लेगे। ३. उत्पादन - दि० जैन समाज बिद्वानों का उत्पादन करे। तो वहा भी फजीता ही खडा हो जायगा। आपकी समझ मे अन्य और क्या उपाय है? तीसरी महत्त्वपूर्ण बात ये है कि यदि मन्दिरो में जरा सोचिए ! मल मात्र ही सुरक्षित रहा, तो मूल भाषा से अनभिज्ञो का -सम्पादक (पृ० ३१ का शेशोष) क्या लिखें कि-शास्त्रों में प्रथमत: लिपिबद्ध * 'कसाय- आदि से तर-तम रूप में रति करने वाला अण या पाहुडसुन' जो मान्य आचार्य का है, उसमे भी अहिंसा महाव्रती हैं, -ऐसा कही नही कहा गया। उक्त स्थिति शब्द एक बार भी देखने को नही मिला जब कि पूरा होने पर भी हम व्रत को शत्रु को भूत 'रति' को प्रमुखता शास्त्र अपरिग्रह और परिग्रह (कर्मानुदय और कर्मोदय) देने के अभ्यामी बन अपने को अहिंसा आदि से रति करने जैसे प्रसगो से पूर्ण है) सहस्रनामो मे भी जिन' को की ओर मोड़ने मे लगे है और अपरिग्रह से नाता तोड़ रहे अहिंसक जैसे विशेषण से विशिष्ट नही किया गया। हैं ; यह आश्चर्य ही है। अस्तु ! इसी प्रकार जिन शासन में राग (रति) की गणना जिनमार्ग मे चारित्र के आधार पर उसके पालकों को परिग्रहों में की गई है और राग को सभी पापों में कारणभूत श्रावक और मनि' जैसी दो श्रेणियो में विभक्त किया माना गया है और अहिंसक या निष्पाप बनने के लिए रागगया है वह परिग्रह और अपरिग्रह की अपेक्षा मे किया रूप परिग्रह के त्याग पर ही बल दिया गया है । एक तथ्य गया है वह परिग्रह और अपरिग्रह की अपेक्षा में किया यह भी है कि 'राग' चारित्र मोहनीय की प्रकृति है और गया है-परिग्रह की मर्यादा मे श्रावक होता है और मुनि चारित्र मोहनीय के उपशम, क्षयोपशम आदि के बिना, अपरिग्रही। यहाँ भी 'चिरत' शब्द की मुख्यता है - वीतरागता रूप संयम मे श्रद्धा-रूप आचरण का प्रादुर्भाव 'देश सर्वतोऽण महती।' देश-विरत को अणुव्रती और सर्वतः भी नहीं हो सकता। ऐमें मे तथ्य क्या है ? इसे पाठक विरत को महाव्रती कहा गया है। उक्त प्रसग में अहिंसा विचारें।* 'कालक्रम से जब लोगों की ग्रहण और धारणा शक्ति निबद्ध द्वादशाग जैन वाड्मय के भीतर अनुसंधान करने का ह्रास होने लगा, तब श्रृतरक्षा की भावना से प्रेरित पर ज्ञात हुआ है कि कसाय पाहुड ही सर्वप्रथम निबद्ध होकर कुछ विशिष्ट ज्ञानी आचार्यों ने उस विस्तृत हुआ है। इससे प्राचीन अन्य कोई रचना अभी तक श्रुत, के विभिन्न अगो का उपसहार करके उसे गाथा उपलब्ध नहीं है।' -कसाय पाहुड सुत्त, प्रकाशकीय सूत्रों में निबद्ध कर सर्वसाधारण में उनका प्रचार 卐दुषिहं संजय चरणं सायार सह णिराया। जारी रखा। इस प्रकार के उपसंहृत एव गाथा-सूत्र सायारं सग्गंथे पग्गिह रहिए णिरायारं ॥ च, प्रा. २१
SR No.538039
Book TitleAnekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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