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जरा सोचिए !
१. प्रागम रक्षा : एक समस्या
के दो खेमों में बंटे होने से भी कोई निर्णय नहीं। आज के लोकालोक के पदार्थों का निरूपण करने वाले आगम
समय मे प्राचीन या नवीन कोई ज्ञाता और निष्पक्ष सैद्धाके नाम पर आज लोगो में बड़ी गरमागरमी है। अमुक
न्तिक जज भी ऐसा नही जिसे सव मान देते हों और ना आगम है और अमुक आगम नही है अमुक को निकालो, ही कोई निष्पक्ष, अग्रगण्य नेता ही है जिसका आदेश चलता अमुक को रक्खो ऐमी चर्चा चारों ओर है । जिन लोगो को हो। ऐसी स्थिति में निर्णय कसे हो? आगम की परिभाषा और पागम का स्वरूप तक नही सब जानते है कि दि० जैनियों में ऐसा कोई आगम मालम है वे भी समर्थन और विरोध मे उछल रहे है और उपलब्ध नहीं है, जिसे साक्षात् रूप में गणधर की देशना विद्वान् (?) तो काफी अर्से से दो खेमों में बंटे हुए है। पर, कहा जा सके । यहाँ तो परम्परित आचार्यवों द्वारा इन समर्थक और विरोधियो में आगम के स्वरूप को सही वद्ध गाथाओं, सूत्रो, श्लोकों गद्य-पद्यात्मक व्याख्याओं को रूप में कितनों ने कितना समझा है ? समक्षा भी है या ही आगम मानने का प्रचलन रहा है-सभी मूल-ग्रन्थ नही? या वैसे ही अखाडेबाजी कर रहे हैं ? इसे सर्वज्ञ ही आगम है और इन्ही के पढने-पढ़ाने की परिपाटी रही है । जाने।
सम-सामयिक विद्वान् इनका वाचन करके श्रोताओ को हमारी समझ मे दिगम्बरो मे श्रुतकेवली और परम्प- अपनी भाषा मे अपनी बुद्धि के अनुसार मौखिक रूप मे रित आचार्यों को देशना का मूल-संकलन आगम कहलाया उसकी व्याख्या सुनाते रहे है। वे ये भी सकेत देते रहे हैं जाता रहा है और इस तथ्य मे किसी को मत-भेद भी नही कि जो व्याख्यान वे कर रहे हैं वह उनकी अल्पबद्धि से ही है और ना ही मूल को लेकर कोई विरोध है। बर्तमान कर रहे है-विशुद्ध-अर्थ और भाव तो श्रुतके वली या विरोध तो भावार्थ, विशेषार्थ, खलासा अर्थ या नवीन परम्परित आचार्य और आगमज्ञ ही जानें। पुस्तकों आदि को लेकर है। किसी व्यक्ति या समूह ने कालान्तर मे जब विद्वान गण मे लेख की परम्परा किसी मल को अपनी बुद्धि या मन्तव्यानुसार अपनी भाषा चली और वे मल को अपनी भाषा मे व्याख्या, विशेषार्थ,
और अपने भावों द्वारा प्रकट कर दिया या वैसी कुछ पुस्तकें भावार्थ आदि के रूपो मे लिपिबद्ध करने लगे तो उसे भी लिख दी-उनको लेकर विरोध है।
मूलग्रन्थ के साथ जोड़ा जाने लगा और वह भाग भी ___कहा जा रहा है कि विवादस्थ प्रसगों को, विद्वानो से आगम कहलाया जाने लगा और आज ऐसे ही लेखन किसी निर्णय कराकर निर्णायक कदम उठाया जाय-जैसा वे रूप मे विवाद के विषय बन रहे हैं। बात भी सच है कि मान्य करें-वैसा किया जाय, आदि। पर, उक्त कथन आगम तो मूल है-श्रुतकेवली और परम्परित आचार्यों द्वारा कोई वजन नहीं रखता । क्योंकि इस दिशा में कई बार कृत है। भावार्थ, विशेषार्थ और व्याख्या आदि तो अल्पज्ञो ऐसे प्रयत्न होते रहे हैं। खानियां में कई विषयों पर जाने की अपनी समझ के परिणाम हैं और उनकी प्रामाणिकता माने उद्भट विद्वानों की लिखित चर्चा भी हुई--वह चर्चा की भी कोई गारण्टी नही की जा सकती। फिर भी येनछपाई भी गई। बाद को भी समर्थन और विरोध मे काफी केन प्रकारेण यदि हा ऐसा मान भी ले कि यह सब भी ऊहापोह होता रहा और आज भी बही स्थिति है, विद्वानों आगम हैं तो सभी रूपान्तरकारो को उन आगमों के निर्माता
* "जिणिन्दमुहाओ विणिग्गयतार, गणिंद विगुम्फिय गंथ-पयार ।' 'तीर्थकर की धुनि, गणधर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञानमयी । सो जिनवर वाणी...........