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________________ आयुर्वेद में बनेकान्त २५ न्तवादी लोगों का यह दृढ़मत है कि विष का प्रयोग सर्वथा तो निश्चय ही वह काल का ग्रास बन सकता है, किन्तु जीवन का हरण करता है। तीक्ष्ण विष के प्रयोग से तो वही विष जब शुद्ध और संस्कारित करके मात्रा पूर्वक मनुष्य का प्राणान्त अवश्यम्भावी है। किन्तु वस्तुस्थिति ओषध रूप में प्रयुक्त किया जाता है तो अनेक भीषण इससे भिन्न है । उसी तथ्य को जब अनेकान्त के परिप्रेक्ष्य व्याधियों का नाश उसके द्वारा किया जाता है। आधुनिक मे देखा गया तो महर्षि अग्निवेष को कुछ और ही अनुभव वैज्ञानिक परीक्षणों ने आमवाद (गठिया वाय) को व्याधि हुआ उन्होंने तीक्ष्ण विष के विषय में स्वानुभूत पदार्थ का में विधि पूर्वक उचित मात्रा में सर्प विष का प्रयोग उपविवेचन इस प्रकार से किया है योगी एव लाभप्रद सिद्ध किया है। इस प्रकार विषत्व की योगादपि विष तीक्ष्णमुत्तम भेषज भवेत् । अपेक्षा से वह विष हैं, किन्तु भेषजत्व की अपेक्षा से वही भेषज चापि दुर्युक्तं तीक्ष्ण सम्पद्यतें विषम् ॥ तीक्ष्ण विष जीवनदायी श्रेष्ठ औषधि है। तस्मान्न भिषजा युक्त युदितअहयेनभेषजम् । इस प्रकार आयुर्वेद-शास्त्र में ऐसे अनेक प्रकरण एवं धीमता किंचिदादेय जीवितारोग्य काक्षिणा ।। उद्धरण विद्यमान है जो अनेकान्त का आश्रय लेकर प्रति-चरक सहिता, सूत्रस्थान १/१२६-२८ पादित किये गये है। इससे न केवल उस विषय की दुरूअर्थात विधि पूर्वक सेवन (प्रयोग) करने से तीक्ष्ण हता ही समाहित हुई है, अपितु अनेक शंकाओ का अनाविष भी उत्तम औषधि हो जाता है और अविधि पूर्वक यास ही निरसन हो गया है। अत: यह कहने में कोई या प्रयोग की गई श्रेष्ठ औषधि भी तीक्ष्ण विष बन जाती है। सकोच नहीं है कि ऐसा करने से आयर्वेद-शास्त्र के दृष्टिइसलिए जीवन और आरोग्य की इच्छा रखने वाले बुद्धि कोण में पर्याप्त व्यापकता आई है और वह पूर्ण उदारता. मान मनुष्य के द्वारा युक्नि बाह्य (युक्ति पूर्वक प्रयोग नही बादी कहलाने का अधिकारी है। जीवन विज्ञान के सदर्भ करने वाले) वैद्य से कोई भी औषधि नही लेनी चाहिए। मे मानव-प्रकृति एव आरोग्य मूलक सिद्धान्तो का प्रति पादन आयुर्वेद-शास्त्र की अपनी मौलिक विशेषता है। यहां पर अपेक्षा पूर्वक विष का विषत्व और भेषजत्व उसमे यदि संकुचित दृष्टिकोण व दुराग्रहों का आश्रय प्रतिपादित किया गया है साथ ही यक्ति पूर्वक प्रयोग की लिया जाता तो निश्चय ही आयुर्वेद-शास्त्र की शाश्वतता अपेक्षा से औषधि का भेषजत्व और विपत्व बतलाया गया और लोकोपकारी भावना का लोप हो जाता, किन्तु ऐसा है। इस प्रकार का प्रतिपादन अनेकान्त का आश्रय लिये नहीं है। इस दिशा में पर्याप्त अध्ययन, मनन और अनबिना सम्भव नही है। क्योकि युक्ति की अपेक्षा से ही चिन्तन के द्वारा पर्याप्त अनुसन्धान अपेक्षित है। अनेकान्त भेषज श्रेष्ठ औषध हो सकती है। यदि यक्ति की अपेक्षा ने आयुर्वेद को कितना सहिष्णु और व्यापक दष्टिकोण न रखी जाय तो वही भेषज रोगी का प्राण हरण कर वाला बनाया है उसका सहज आभास उन स्थलो से मिलता सकती है। जैसा कि आज कल प्राय. देखा जाता है कि है जहाँ अन्य ऋषियो के निम्न दृष्टिकोण मूलक शब्दो को स्टैप्टोमाइसिन पेनिसिलिन के इजेक्सन के प्रयोग में बरती भी समावृत किया गया है । अत: गम्भीर विमर्श पर्वक गई जरा सी असावधानी रोगी का प्राणान्त कर देती है। इस दिशा में पर्याप्त अध्ययन, मनन और अनुचिन्तन द्वारा यही इंजेक्सन अच्छी तरह विचार कर प्रयोग किये जाने अनुसंधान अपेक्षित है। आशा है विद्वज्जन एवं शोधार्थी पर जीवनदायी बन जाता है। उसी प्रकार यदि किसी इस दिशा में प्रयासरत होगे। मनुष्य को संखिया, कुचला, धत्तर आदि विषवर्गीय किसी द्रव्य का सेवन बिना सस्कार किये ही करा दिया जाय ~भारतीय चिकित्सा, केन्द्रीय परिषद्, नई दिल्ली
SR No.538039
Book TitleAnekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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