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बर्वेद में अनेकान्त
ग्रहण होता है। तथापि "जल" शब्द से संघात, जमना, वरण आदि अनेक धर्मों से युक्त "जल" पदार्थ ग्रहण होता ही है।
इसी प्रकार "हरि" शब्द से "हरण" क्रिया" प्राणो पापों, मन, आदि कर्मों से युक्त करने पर अनेक पदार्थों में प्रयुक्त होता है । प्राणों को हरने वाले "यम" "सर्प" सिंह" आदि मे, पापो को हरने वाले "विष्णु" में, मन को हरने वाले " बन्दर" में "हरि" शब्द के अर्थ का प्रयोग किया जाता है ।
अतः जैसे "सिद्धान्त" शब्द मे सिद्ध अन्तः निर्णयः यत्र असो "सिद्धान्तः” यह सिद्धान्त" शब्द का अर्थ है उसी प्रकार " एकान्त" शब्द का अर्थ एक ही निर्णय है जिसमे ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए।
अनेकान्त में आग्रह के लिए कोई स्थान नही है । आग्रह ही दृष्टिकोण को संकुचित या एक पक्षीय बनाता है। किसी भी वस्तु के विषय मे आग्रह पूर्वक जब कहा जाता है तो उससे वस्तु स्वरूप का वास्तविक प्रतिपादन नही हो पाता । यही कारण है कि वस्तु को जैसा समझा जाता है वह केवल वैसी ही नही है, उससे भिन्न कुछ अन्य स्वरूप भी उसका है, जिसे जानना या समझना आवश्यक है जैसे "देवदत्त अमुक लड़के का पिता है" जब यह कहा जाता है तो वस्तुतः पुत्र की अपेक्षा से वह पिता है, अतः यह ठीक है । किन्तु वह देवदत्त केवल पिता ही नही है, अपितु, वह अपने पिता की अपेक्षा से पुत्र भी है और अपनी बहिन की अपेक्षा से भाई तथा मामा की अपेक्षा से भान्जा भी है। इस प्रकार वह एक ही देवदत्त अनेक धर्मात्मक है। इसका स्वरूप अथवा यह वस्तु स्थिति अनेकान्त के द्वारा भली-भांति समझी जा सकती है।
आयुर्वेद शास्त्र में भी अनेकान्त का आश्रय लिया गया है और उसके आधार पर वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है, यह अनेक उद्धरणों से सुस्पष्ट है आयुर्वेद मे जहा अनेकान्त छ आधार पर विभिन्न विषयों का प्रतिपादन एवं गम्भीर विषयों का विनेचन किया गया है, वहां तन्त्र युक्ति प्रकरण के अन्तर्गत उसका परिगणन कर उसके स्वतन्त्र अस्तित्व को भी स्वीकार किया गया है । आयुर्वेद
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शास्त्र में कुल ३६ तन्त्र युक्तियां प्रतिपादित की गई हैं, जिसमे अनेकान्त भी एक तन्त्रयुक्ति है । आयुर्वेद शास्त्रकारों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से अनेकान्त की व्याख्या की है, जो अपने-अपने दृष्टिकोण से उपयुक्त है। सर्वप्रथम आचार्य चक्रपाणि दत्त द्वारा विहित व्याख्या का अनुशीलन करते है जो निम्न प्रकार है
"अनेकान्तो नाम अन्यतरपक्षानवधारणं यथा- "ये हातुराः केवलान् भोजादतें त्रियन्ते न च ते सर्व एव भेषजोपपन्नाः समुत्तिष्टेरन् ।"
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- चरक संसिता, सिद्धिस्थान २/४३ पर वक्रपाणि टीका अर्थात् दूसरे पक्षों का अनवधारण करना अनेकताम्त कहलाता है। जैसे- जो रोगी केवल भेषज के बिना मर जाते हैं, वे सभी रोगी भेषज से युक्त होने पर ठीक नहीं होते ।
यहां पर केवल एक का ही कथन महर्षि द्वारा नहीं किया गया है, अपितु अन्य पक्ष का समर्थ भी किया गया है जो रोगी पूर्ण चिकित्सा नहीं मिल पाने के कारण मर जाते हैं, वे सभी रोगी पूर्ण चिकित्सा मिलने पर ठीक हो ही जाते है, यह आवश्यक नहीं है। अर्थात् उसमें से भी कुछ रोगी पूर्ण चिकित्सा मिलने पर भी मर जाते हैंयह आशय है । यहां पर महर्षि ने अपनी बात कहने के लिए अनेकान्त का आश्रय लिया है। इसी को और अधिक स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया है कि सभी व्याधियां उपाय साध्य नही होती है। जो रोग उपाय (चिकित्सा) से साध्य है, ये बिना उपाय (चिकित्सा) के अच्छे भी नहीं होते। असाध्य व्याधियों के लिए पोटकल भेषज (चिकित्सा का विधान भी नहीं है, क्योंकि विद्वान् और ज्ञानसम्पन्न वैद्य भी मरणोन्मुख रोगियों को अच्छा करने में समर्थ नहीं होते ।
अनेकान्त को महसुश्रुत ने कुछ दूसरे ढंग से प्रस्तुत किया है, किन्तु आमय नहीं है। जैसे।
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"क्वचित्तथा वचिदन्थेति यः सोअनेकान्तः यथा-केचिदाचार्याः द्रवते द्रव्य प्रधान, केचिद्वीर्य, केचिद्विपाकमिति । "
- सुश्रुत संहिता, उत्तरतन्त्र ६५ / २४