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________________ जरा सोचिए ! १. अपरिग्रह धर्म को कैसे बचायें । आचार्य कहते हैं 'विरम किमपरेण कार्य कोलाहलेन, जैन धर्म का मूल अपरिग्रह है और इस धर्म में वर्णित । स्वयमपि निभृतः सन् पश्य षण्मासमेकम् ।' समयसार कलश; देव और गुरू दोनों ही अपरिग्रही शौच-पूर्ण है। हमारे -हे भव्य, अन्य कार्य-कोलाहलों से (तेरा लाभ) देव-'जिन' पूर्ण अपरिग्रही है, उनका धर्म जैन भी अपरि क्या ? तू विराम लें-उनसे अपना विघटन कर और छह ग्रहत्वपूर्ण है और गुरु-मुनि गण भी अपरिग्रही है। इसी मास अपने मे रहकर देख । तुझे परमानन्द प्राप्त होगा। बात को यदि हम अभेद रूप से कहें तो अपरिग्रह हो । देवत्व है ओर अपरिग्रहत्व मे ही गुरुत्व या दिगम्बरत्व है; ___ स्मरण रहे-विघटन जिन, जैन, दिगम्बर और मुनि के शुद्ध-रूप में आने का उपाय है। जब तक हमारा परऐसा कह सकते है । अर्थात् अपरिग्रहत्व की पराकाष्ठा परिग्रह से विघटन न होगा तब तक हमारे द्वारा जिन, होने पर वीतरागी-जिन 'देव' है; उनका धर्म 'जैन' भी जैन, दिगम्बर और मुनि जैसे रूपों में एक भी रूप ग्रहण अपरिग्रह की पराकाष्ठा है और दिगम्बर मुनि भी अपरि नही किया जा सकेगा; क्योंकि-पर-परिग्रह से तो हम ग्रह की ही जीती-जागती मूर्ति है। सदा से ही संगठित होते रहे है, हमें उक्त चारों रूपों में से ऊपर की कथनी से हमें स्पष्ट समझ लेना चाहिए ए एक भी रूप नही मिल सका है। भी कि-जैनत्व एकाकी शुद्ध-रूप मे, पर से नाता तोडने मे मगलोत्तम-शरण पाठ यानी चत्तारि मंगलम् आदि फलित होता है। हमारे यहा दा शब्द आत ह-सयाग पाठ तो आप नित्य पढ़ते है। यह पाठ अनादि है। आप और वियोग। सयोग अशुद्धि का द्योतक है और वियोग देखे कि इसमे अरहंत, सिद्ध, साधु और धर्म इन चार को र शुद्धि का द्योतक है। सयोगी अवस्था संसारी है और मंगल रूप और शरणभूत कहा गया है। दूसरी ओर वियोगी अवस्था शुद्धि की परिचायिका है। आश्चर्य है। विनय-रूप णमोकार-मत्र पर भी दृष्टिपात करें, वहां कि वस्तु की ऐसी मर्यादा होने पर भी अज्ञानीजीव आचार्य उपाध्याय का नाम जुड़ा हुआ है। जबकि चत्तारि परिग्रह-संयोग (अशुद्धि) मे खुश और परिग्रह-वियोग मंगल पाठ में उन्हें छोड़ दिया गया है। ऐसा क्यों ? व्यव(शुद्धि) में नाखुश देखे जाते है। हार में हम समाधान कर लेते हैं कि आचार्य-उपाध्याय इसी प्रकार संगठन और विघटन जैसे दोनो शब्दो पर दोनों पद साधू पद मे गभित हैं। पर, यदि ऐसा ही है तो विचार करें तो धर्म-वस्तु का स्वभाव, पर से विघ. णमोकार मन्त्र में भी उक्त दोनों पद न देकर इन्हें साधु-पद टन में होता है और वस्तु की विकृति पर-संगठन से मे क्यों नही गभित कर लिया गया ? सूत्र भी लघु हो • होती है। जबकि आज के लोग विघटन को तिरस्कृत कर जाता और भाव भी फलित हो जाता । पर ऐसा नहीं संगठन पर जोर देते देखे जाते हैं । स्पष्ट है कि-भिन्न किया गया; क्योंकि णमोकार मन्त्र मात्र विनय-मन्त्र है, व्यक्तित्वों का एक समुदाय में होना सगठन है और हर नमस्कार मन्त्र है, और मंगलोत्तम शरण-मन्त्र वस्तु-स्वरूप व्यक्ति का स्वतन्त्र-स्व-रूप मे रहना विघटन है । कृपया परिचायक है। यत:-जैसे, सिद्ध और साधु पूर्ण अपरि. सोचिए जनत्व में आने के लिए आप विघटन को चुनेंगे ग्रहत्व रूप है वैसे आचार्य और उपाध्यायों के साथ पूर्ण या विकारी भाव संगठन को? हमारी राय में आप एक अपरिग्रहत्व नही। उनके शिष्य परिवार है, उसकी शिक्षाबार विघटन करके तो देखिए, पर से अलग अपने को दीक्षा आदि विकल्प रूप शुभ,परिग्रह है। भले ही वे व्यव. देखिए : आप स्वयं ही बोल उठेंगे-जैन धर्म की जय ! हार दृष्टि से हमारा मंगल करते हों, लोक दृष्टि में उत्तम
SR No.538039
Book TitleAnekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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