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________________ २८ वर्ष ३६ कि.४ निज शिर केश लुंच विधि कर, पर हित सार जर तरु जाति, पंच घरा फिर भिक्षा धरै ॥१७॥ सहइ जीव दुख नाना भांति ॥२६॥ ठा भोजन लेह प्रवीन, दोहा-तहां ध्यान दृढ मुनि धरै, कर्म क्षय निज हेत । पाणि पात्र अति पर धर लीन । द्वादशानुप्रेक्षा चितव, सु वर्णनि करौं सुचेत ॥३०॥ दातून रहित सोहै मुनिराइ, चौपाई-धन यौवन नारी सुख नेह, एक बार भोजन तनु आइ ॥१८॥ पुत्र कलत्र मित्र तनु एह । दोहा-ऐ अट्ठाईस मूल गुण, जो पाले मुनि राय । रथ गज घोड़े देश भंडार, सो मुनिवर गणधर कहै, तारन तरन सहाय ॥१६॥ इन्ही जात नही लाग वार ॥३१॥ उत्तर गुण जो पालहिं, लक्ष चौरासी धीर । जैसे मेघ पटल क्षण क्षीण; ते जिन शासन में कहे, यतिवर गुणनि गंभीर ॥२०॥ तसो जानो कुटुम्ब सगु दीन । चौपाई-जो मुनि देह भोग सुख आशा, जल संयोग आम घट जैसो, धन इक कोड़ि न राखै पासा । सकल भोग बिधि जानहुं तसो ॥३२॥ धरि यति भेष करै व्रत भंगु, दोहा-जो उपजो सो विनशई, यह देखो जग रीति । बहुत मोह कर बांध संगु ॥२१॥ अध्रुव सकल विचारि के, करहु धर्म सौ प्रीति ॥३३॥ सुख यश हेतु महा व्रत धरै, -इति अध्र वोनुप्रेक्षा हिंसा करि माया को परे । चौपाई-जैसे हिरण सिंह बस परयो, ते मुनि दुर्गति जैहैं सही, तैसे जीव काल ने धरयो । यह गाथ (ह) श्री गणधर कही ॥२२॥ कोऊ समर्थ नही ताहि बचाव, दोहा-तप जप संयम शील शुभ, दयाक्षमा परमार्थ । कोटि यत्न करि जो दिखरावै ॥३४॥ ते गुरु निश्चय जानिज, तारण तरण समर्थ ॥२३॥ मत्र तन्त्र जे औषधादि धनी, बल विद्या ज्योतिष अति गुनी। चौपाई-जो पर्वत पर मंडहि जोग, ए सब निष्फन होहिं विशाल, नियमा पर छांड सब भोग । जब जीव आनि परै वश काल ॥३५॥ ग्रीषम मघा मौ पर पर, दोहा-इन्द्र चक्री हरि हर सबै, विद्याधर बलवत । ___अरुदपारि (दावाग्नि) पुनि वन में जर ॥२४॥ काल पाश तें उपरे सुको किह रक्षहि अन्त ॥३६॥ दोहा-सुःख दु:ख सम जानि के, शत्रु मित्र सम रूप । -इति अशरणानुप्रेक्षा धरि सन्तोष निराश मति, सहई परीषह भूप ॥२५॥ चौपाई-द्रव्य क्षेत्र पुनि काल जुआनि, चौपाई-वर्षा काल वृक्ष तल जाय, भव अरु भाव तही जुव खानि । धरै जोग तहं मन वच काय । यह संसार पंच विधि कही जै, वरसै मेह महा मति घोर, जीवन मरण जीव दुख लहीजे ॥|| चहुंधा वायु झकोरइ जोर ।.२६।। समय अनता नत जु लए, दोहा-करकेंटा अरु विषहनरा, वृश्चिक सर्प जु क्रूर । अनतकाल तह पूरण भए। ऊपर चढ़ जु भाइक, सहइ परी वह शूर ॥२७॥ समय एक कहुं बचिऊ न तीव, शीतल बंद जो टपकही, बेलें लपटें अंग। जामन मरण लहौं नही जीव ॥३८॥ आशा देह जु त्यागिक, धरै ध्यान नि:संग ॥२८. दोहा - जिनतें बहु सुख पाइए ते भए दुख को रूप । चौपाई-शीतकाल पुनि जानहु धीर, परावर्तन बहु पूरियो, यह संसार स्वरूप ॥३६ धरै जोग सरवर के तीर । (शेष अगले अक में)
SR No.538039
Book TitleAnekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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