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________________ को भिन्न भिन्न काल में, साहित्य में, कला में, रुप दे दिया गया है वे है । इनकी दया और जीवन संस्कारों में कैसे प्रवाहित किया इस ओर कृपा पर ही सब कुछ आधारित है। इन्ही को ध्यान नहीं जात है, जैन साहित्य का इतिहास प्रसन्न करने के लिये यज्ञादि क्रियायें की जाती लिखा जाता है ऊन विद्वानों के जीवन चरित्र है। इस विचारधारा में अहिंसा संयम को काई जाते है परत भारतीय साहित्य के विकास महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं है। देवी देवताओं को में और भारतीय विद्वानों में इनका क्या स्थान प्रसन्न करने के लिये जो यज्ञ किये जाते है उनमें था, भारतीय संस्कृति के विकास में इनका क्या प्राणी भो बली कर दिये जाते थे। उनके अनुसार स्थान था इस ओर ध्यान नहीं दिया जाता हैं मानों ईश्वर समय-समय पर संसार में अवतार लेकर जन समाज भारत य समाज का एक अलग बाहर गृहस्थावस्था में ही रहते हैं और संसार का माग से आया हआ उपेक्षित अंग ही है। जैन विद्वानों दर्शन करते हैं। ऐसे अवतारो में ही भगवान में भी यही संकी दृष्टि है और वे जो भी श्री राम और श्री कृष्ण है। जबकि श्रमण चर्चा करते है मागां केवल जैन धर्मावलंम्बियों विचारधारा के अन्तिम दो तीर्थंकर श्री पार्श्व और के लिये ही करते है। इसलिये आधुनिक इति- श्रीमहावीर एतिहासिक व्यक्ति स्वीकार कर लिये हास तथा अन्य विषयों के साहित्य में जैनधर्म की गये है, दुसरी विचारधारा के अवतार भी एतिओर जौन इतिहास की ओर जैन समाज की हासिक नहीं किन्तु पाराणिक ही है । इस भेद का उपेक्षा ही दृष्टिगे।चर होती है। कारण यही है कि जब आर्य आये तब भारत एक भारत में दो विचार-धाराए' प्रवाहित है- बहुत ही विकसित देश था, भौतिक दृष्टि से १. श्रमण विचारधारा जिसका आधार जैनधर्म के भी बहुत विकसित था और जहां भौतिक विकास अहिंसा सयम के सिद्धांत है, जो इस जीवनमें और होता है पारस्परिक स्पर्धा, इर्षा, द्वेष इत्यादि मृत्यु के पश्चात में सुख श्रेय का आधार किसी अनेक दोष पैदा हो जाते है जो मनुष्य समाज में बाहरी व्यक्ति या शक्ति की दया या कृपा संघर्ष और वैमनस्य पैदा करते है जिनको नियंको नहीं मानते है किन्तु स्वयं के पुरुषार्थ और त्रित करनेका सबल उपाय आत्मनियंत्रण अर्थात स्वालम्बन का ही जानते है और उनके पूजनीय अहिसा और संयम ही हैं। बैदिक विचारधारा तीथ कर भी इसी प्रकार निज के पुरषार्थ द्वारा वाली आर्य जाति इतनी विकसित नहीं थी ही आत्मशुद्धि करते हुये इस पद पर-परमात्मा इस लिये उनमें न तो संघर्ष था और न उसको पद पर पहुचे है. । रन्तु वै भी किसी भक्त या नियंत्रित करने के लिये धर्म-अहिंसा संयम की अन्य के भाग्य में हस्ताक्षेप नहीं करते हैं। आवश्यकता थी। उनकी भक्ति या ।जा उन्हें प्रसन्न करने के विकसित समाज कभी अंधविश्वास स्वीकार लिये नहीं किन्तु उन्हे आदर्श रुप में मान कर नहीं करती। उसकी मान्यताए बुद्धि युक्ति और उनसे प्रेरणा प्राप्त करने के लिये की जाती है। अनुभव पर आधारित होती है। जीवन सिद्धांत भारत की यही प्राचीन विचारधारा है। भी सुव्यवस्थित सुसंगठित होते हैं और जीवन २. वैदिक विचारधारा, यह भारत के बाहर माग भी इस प्रकार का होता है कि भिन्न भिन्न के आये उस आर्यो की विचारधारा हैं। इसके स्थिति और शक्ति के मनुष्य उस मार्ग पर चल अनुसार मनुष्य का कर्ताहर्ता, भाग्य विधाता, एक कर स्वपुरुषार्थ से इस जीवन में भी सुख और अप्रत्यक्ष काल्पनिक व्यक्ति ईश्वर ही है तथा सफलता प्राप्त कर सके । जैन सिद्धांत इसी प्राकृतिक शक्तियां जिनको इन्द्रादि देवताओ का प्रकार के सिद्धांत हैं। ५युषयां] रैन: [५२७
SR No.537870
Book TitleJain 1973 Book 70 Paryushan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Devchand Sheth
PublisherJain Office Bhavnagar
Publication Year1973
Total Pages138
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Weekly, Paryushan, & India
File Size16 MB
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