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________________ स्वभावतः इन्द्रिय भोग इच्छुक हैं इसके लिये धन और सत्ता की आवश्यकता होती हैं और यह इच्छाएं कभी तृप्त नहीं होती । यही संसार में शोषण और स्वार्थवृत्ति, प्रतिद्वन्दता और संघर्ष' को जन्म देते है और इसी से अपराध और हत्याएं बढती हैं । पाश्चात्य देशा का जीवन इसका प्रमाण है । वे भौतिक विकास पद पर सबसे आगे हैं अमेरिका के विषय में भूतपूर्व जस्टिस टेकचन्द के शब्दों में अपराध का उत्तरदायित्व धन की कमी पर नहीं हैं किन्तु उस की बहुतायत पर धन सत्ता और इन्द्रिय भोग की इच्छाए जैसे वे मिलती हैं वैसे वे से वे बढती हैं। नैतिकता के भाव नष्ट करने में भौतिकवाद बेजोड हैं " । इसी प्रकार एक अंग्रेज उच्चाधिकारिका कहना हैं कि ज्यों ज्यों धन सम्पति बढती हैं, अपराध बढते हैं । इस रोग का इलाज करने में न्याय व्यवस्था और कानून विफल हीं रहते हैं । इसका इलाज कैवल आत्मनियंत्रण, स्व० अनुशासन ही हो सकता है। मनुष्य आत्मनियं त्रण द्वारा अपने आप को ऐसे किसी मी कार्य करने से रोके जिससे किसी को कष्ट हो या किसी का अहित हो यह अंहिसा है । अपने आप को रोकना संयम है और ऐसी आदत डालने के उपाय करना शिक्षा प्राप्त करना जिससे संयम का विकास है। वह तप है अर्थात अहिसा संयम और तप ही संसार को उपर बनाई बुरी प्रवृत्तियों से रोक सकता है । यह अहिसा संयम तप ही जैन धर्म है । यह ऐसा युक्ति और मान्सिक विज्ञान आधारित सिद्धांत है कि इसमें नास्तिक भी दोष नहीं बता सकते। यह भी प्राकृतिक सिद्धांत है कि प्रत्येक क्रिया को प्रति क्रिया होती है । यही जैन कम सिद्धांत है । इसी अहिंसा संयम तप को वहारिक रूप देने की दृष्टि से फांच महाबूत और १२ अणुव्रतो की योजना है। संसार की वास्तविकता समझने के लिये बारह भावनाए विचारनीय बनाई गई है । यह सब बाते अन्धा ५२४] नुकरण से करने की नहीं हैं, विन्तु जैन धर्म में इस बात पर भार दिया गया है कि सिद्धांतो को गहराई से समझ कर अपने जीवन अनुभव द्वारा तथा युक्ति द्वारा उनकी सत्यता स्वीकार कर उन पर श्रद्धा कायम करना चाहिये और फिर उसके अनुसार आचरण करने की चेष्टा करना चाहिये । इन तीनों मे से एक की कमी भी सिद्धान्तो की जानकारी का यर्थ कर देती है। जैन धर्म की दृष्टि इतनी विशाल और निराग्रही है कि यह आवश्यक नहीं कि जीवन अहि संयम तप का ध्येय अधुक प्रकार से ही प्राप्त किया जाय । मनुष्य काई भी मार्ग अपनाये यदि वह मार्ग ध्येय पर पहुचा सकता है तो उस में जैनधर्म को कोई आपत्ति नहीं | यह सब बाते भी उ'चे दर्जे के बुद्धि विकास के परिचायक है। नियंत्रित जीवन से मनुष्य का स्वास्थय भी उत्तम रहता है। बुद्धि भी संकल्प विकल्प रहित होकर विकसित होती जाती है, वेिक अधिकाधिक जागृत होता जाता है, स्वभाव शान्त परोपकारी, सहयोगी भावनापूर्ण होता जाता हैं, व्य क्तित्व भी खिलता जाता हैं । और वारे और सहयोग मंत्रीपूर्ण और शान्त वातावरण बनता जाता हैं । यह सब बाते मनुष्य को अपने व्यवहारिक जीवन में सफलता कारण बन जाते है । जैन सिद्धांत मनुष्य के व्यवहारिक जीवन में अपने कुटुम्ब, समाज देश और संसार के प्रति उत्तरदायित्व निभाने में किसी प्रकार बाधक नहीं है कि इनके लिये 5 उस की योग्यता बढाते है । नियंत्रितजीवन वाले व्यक्ति क हृदय शुद्ध होता जाता हैं, अपनी कमजोरियों को, दुर्गुणों hr, अधिकाधिक समझने लगता है और उनके दूर कर सद्गुणों का उपार्जन की चे टा करता है, इस प्रकार क्रमशः बुद्धि समझ और दृष्टि अधि• धिक विक त होती है और उसका जीवन अधिकाधिक उच्च और उसको आमा अधिकाधिक शुद्ध होती हुई पूर्ण शुद्धता, मे क्ष परमात्मा [ पर्युषण : नैन :
SR No.537870
Book TitleJain 1973 Book 70 Paryushan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Devchand Sheth
PublisherJain Office Bhavnagar
Publication Year1973
Total Pages138
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Weekly, Paryushan, & India
File Size16 MB
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