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________________ पर्वाधिराज की आराधना कैसे फले ? ____ ले० हीराचंद वैद-जयपुर विश्व में प्रचलित धर्मो में जैन धर्म का भी अनन्त उपकारी तीर्थ कर भगवन्ते । के जीवन के अपना विशेष स्थान है. अन्य धर्मों में जहां लौकिक उदारण इतिहास के रुपमें हमारे सामने हजारो पर्वो का महत्व हैं वहाँ जैन शासन में लोकोत्तर लाखो वर्षा की जैन शासन की महेमा सोनेमाकी पर्वो का ही महत्व है। रील की जैसे क्रमबद्ध रुपमें आती रहती है। प्रभ ये एसे पर्व है जिनमें श्रमण समूदाय व के प्रति समर्पणा की भावना आती है, साघुश्रावक वर्ग देना ही आराधना कर अपने मुख्य भगवन्ता के चारित्र भी के प्रति द्धा पैदा होती लक्ष्य मोक्षमार्ग की अभिलाषा को जागृत करने है, ज्ञान के प्रति रुचि बढती है। स तरह दर्शन में दत्तचित रहते है। ज्ञान चारित्र की रत्नत्रयी के प्रति मस्तक विनम्रता ___ आज हमे पर्युषण पर्व के सम्बन्ध में कुछ से झुक जाता है । विचार करना हैं। पर्व तो सब ही है पर केवल अब अन्त में आता है सवत्सरी महापर्व । यही पर्वाधिराज क्यों ? वस्तुतः इस पर्व की यह जन शासन का एक अभूतपूर्व पर्व है। इस स्थिति ही एसी है। वार्तमासकाल धर्माराधन के पर्व की आराधना भी अनोखी है। हम से वर्ष लिये हरतरह से उपयुक्त समय है । इस क ल में भर में दुसरो के प्रति हुये अविनय व भूला के वर्षा का जोर होने से व्यापार भी मध्यम रहता लिये क्षमा मांगने का प्राधान है ही साथ है, दुसरी ओर तपस्या आदि के लिये भी यह ही दुसरो द्वारा इसी तरह हमारे ति किये हुये श्रेष्ठ समय है न ज्यादा गमी, न ज्यादो सही', अविनय व भूला के लिये क्षमा मांगने पर क्षमा हवा भी नर्म। फिर सबसे बडा लाभ इस काल प्रदान करना भी मुख्य आकर्षण है। पर उन में साधु-साध्वीया का एक जगह स्थिरवास । इस सबसे भी उपर हृदय की स्वच्छता के लिये यह पर्व का कार्यक्रम भी हमारे पूर्वाचार्यों ने इस कितना महान कार्य हैं कि केवल गने व देने ढग से सजाया है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी के लिये क्षमा नहीं, अस्तूि सामने वाले के नही विचार करे तो हमारे जीवन को शुद्ध सात्त्विक मांगने पर भी अपनी ओर से महानता दर्शाते बनाने की अपूर्व अवसर यह पर्व प्रस्तुत करता है। हुये क्षमा कर देना? क्यां दुनिया के किसी भी आठ रोज के इस पर्व की आराधना में धर्म में एसा दिगदर्शन मिलता है। प्रारम्भ में अठ्ठाइ व्याख्यान में हमारे मुख्य कर्तव्य __आठ रोज नियमित व्याख्यान पूना, तपस्या क्या है, इन पर विस्तृत विवेचन होता है, प्राचीन की भी की, अर्थ का सदुपयोग भी किय पर जीवन काल में बने ऐतिहासिक तथ्यों के साथ हमको हमका जीने की कला हम नही सीख पाये तो इन सब भूले हुये मार्ग से सही मार्ग पर आने की प्रेरणा का लाभ-जैसा चाहिये वैसा मिलेग नही । करते है। इनके बाद कल्पसूत्र का वाचन प्रारम्भ होता है। वाचन से पूर्व ज्ञान की भक्ति का इस आराधना वन में स पता विनय अपूर्व प्रसंग आता हैं। फिर नव वाचना में और तप के प्रति आदरभाव आवे ते ही नैतिक कल्पसूत्र का जो विवेचन आता है-उससे हमारे दृष्टि हम उत्कष्टता की ओर बर सकते है । ५१८]] नि : પર્યુષણાંક
SR No.537870
Book TitleJain 1973 Book 70 Paryushan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Devchand Sheth
PublisherJain Office Bhavnagar
Publication Year1973
Total Pages138
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Weekly, Paryushan, & India
File Size16 MB
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