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________________ निर्माण करनेवाला, प्राणियोंके वध छेद भेद और कलह प्रद्वेष परितापयुक्त न होने दे। साधक को चाहिये कि वह अपनी वाणी को जांच करे । उसे पापयुक्त, सदोष, कलह - प्रद्वेष- परितापयुक्त न होने दे । साधक को चाहिये कि प्रत्येक वस्तु ठीक से देखकर जांचकर साफकर ले या रखे जिससे जीवी हिंसा न हो वैसे ही खाने पीने की चीजें ठीकसे देख भालकर उपयोग में ले जिससे किसी भी जीवकी हिंसा न हो । यदि साधक ऐसा करता है तो अहिंसा महाव्रत को शरीर से स्वीकार कर उसने उसका पालन किया ऐसा माना जावेगा । अहिंसा व्रत की तरह दूसरा व्रत बाणीके दोष त्याग का है। जिसे जीवन पर्यंत पालनेका संकल्प साधक करता है। क्रोध, लोभ, भय हास्य में भी मैं मन, वचन, काया से असत्य नहीं बोलूंगा दूसरे से नहीं बुलवाऊंगा तथा झुठ बोलने की अनुमति नहीं दूंगा । इस व्रत के पालन में साधक का यह सावधानी रखनी चाहिये कि वह जो कुछ बोले से च विचार कर की बोले, जिससे बिना विचार किये झुठ बोलने दोष से बच जाय । निग्रंथ का चाहिये कि वह क्रोध, लोभ, भय और मजाक का त्याग करे जिससे कि क्रोधमें, लोभमें, भयके कारण या हसी मजाक में झुठ न बोल दे । यदि इस प्रकार सावधानी के साथ इस व्रतका पालन करता है तो उसने दूसरे महाव्रतका स्वीकार कर आचरण किया ऐसा समझा जावेगा । साधक तीसरे व्रतमें सभी प्रकार की चोरीका त्याग करता है । वह ग्राम, नगर, जंगल में अल्प या अधिक, सचित या अति कोई भी वस्तु दिये बिना नहीं लेता, लेनेके लिये नहीं कहता या लेनेवाले का अनुमोदन नहीं करता। इस व्रतके पालन के लिये साधक को चाहिये कि वह कमसे कम वस्तुऐं मांगे। जो कुछ भिक्षा में मिले उसे अपने आचार्य या गुरु को बताकर उनकी १७] इजादत से खावे । वह काल या क्षेत्र को मर्यादा बांधकर ही आवश्यक वस्तुएं मांगे निग्रंथ कमसे कम वस्तुओं के उपयोग का प्रमाण समय समय पर निश्चित करे। साधक को चाहिये कि वह सहधर्मीयों के लिये भी विचारपूर्वक मित प्रमाण में ही वस्तुएं भिक्षा में मां । चौथा महाव्रत ब्रह्मचर्य है। सभी प्रकार के मैथुन का जीवन पर्यंत वह त्याग करता है । ar fear प्रकार के मैथुन का सेवन नहीं करता, दूसरों से नहीं करवाता व मैथुन करनेवाले का अनुमोदन नहीं करता इसलिये वह यह सावधानी रखता है । वह स्त्रियांसे बि॥ जरुरत व बार बार बात नहीं करता, स्त्रियों के मनोहर अवयवों को न तो देखता है और न उनका जीवन में चिंतन ही करता है । साधक पूर्व की हुई काम क्रिडा का स्मरण नहीं करता और न काम को उत्तेजित करनेवाला अ हार ही लेता है । वह स्त्रियों द्वारा उपयोग लाये हुये आसन का भी उपयोग नहीं करता । साधक सभी तरह के परिग्रह का त्याग करता हैं। छोटी या बडो, सवित अचित सभी वस्तुओं में परिग्रह बुद्धि नहीं रखता, दूसरे से नहीं रखवाता या परिग्रह की अनुमोदना नहीं करना । इसलिये वह कर्ण से मधुर शब्द सुनकर उसमें आसक्ति, मोह या राग नहीं करता, वैसे ही अप्रिय शब्द सुनकर उनका द्वेष नहीं करता | कामे शब्दोंका न सुनना तो संभव नहीं किंतु उस की आसकि या द्वेष त्याग करना संभव है । र आंखे से प्रिय अप्रिय रूप देखकर उसमें ग द्वेष नहीं करता । नाकसे प्रिय या अप्रिय गंध आवे तो जिन्हा से प्रिय या अप्रिय स्वाद चर कर उसके उसके प्रति उसकी आसक्ति या घृण नहीं होती । प्रति ममता या द्वेष नहीं रखता और न प्रिय अप्रिय स्पर्शी के प्रति उसकी वह भावना होती है। इस प्रकार सभी इंद्रियों के प्रति अनासकि रखता हुआ भिक्षु इलम र सावधानी
SR No.537861
Book TitleJain 1963 Book 61 Bhagwan Mahavir Janma Kalyanak Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Devchand Sheth
PublisherJain Office Bhavnagar
Publication Year1963
Total Pages46
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Weekly, & India
File Size7 MB
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