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________________ भगवान महावीर सकल देशना. लेखक : रिषभदास रांका. जब भगव न जांभिक प्राम के पास ऋजुवा- समाप्त कर पलक खोलकर परिषद की और लुका नदीके किनारे वैयावत नामक चैत्य में अमृतमयी दृष्टि डाली गुस्सा बिलकुल हो चला शालवृक्ष के नाचे गोदाहासन पर बैठकर उत्कृष्ठ गया और उनको प्रति श्रद्धाभाव से एक टक शुक्ल ध्यान पर रहे थे। चित्त शुद्ध और एकाग्र देखने लगे । जब भगवान परिषद का उद्देश कर बन गया था ब वैशाख शु० १० को बतुर्थ अमृतमयी वाणी में उपदेश देना प्रारंभ किया प्रहरमें केवल जानकी प्राप्ति हुई। बारह सालकी तो परिषद तथा पंडित वर्ग मुग्ध होकर वह कठोर साधना सिद्ध होकर कल्याणमार्ग स्पष्ट हो वाणी एकाग्र चित्त से श्रवण करने लगे। गया । वे छदा स्थ मिटकर आहेत, जीन, केवलो भगवान बोले, देवान प्रिय, और सर्वज्ञ ब। गये। अज्ञान, भय, मान, लाभ, माया, रति रति, असत्य, चौर्य, मत्सर, हिंसा, अपनी तरह जीनमें प्राण है ऐसे जीवोंके छ राग, द्वेष, क्लेइ , पैशुन्य, मायामृषावाद आदि प्रकार ' प्रकार है। पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्नीकाय, वायुदोषांसे मुक्त में गये। उनके मुखपरः असीम ___ काय, वनस्पतिकाय और प्रसकाकाय । ये सभी शांति और मा पुर्य दिखाई देने लगा। पर वहां जीव सुखभिलाषी है और सुख को परमधर्म उपदेश दे ऐसी पर्षदा न होनेसे उन्होंने नगरी मानते है। इसलिये किसी भी जीवको कभी दुःख की ओर प्रयाण किया शास्त्रो में तो ऐसा वर्णन नहा दा नहीं देना चाहिये, दूसरों से नहीं दिलाना चाहिये मिलता है कि वल्य ज्ञान प्राप्ति के बाद उन्होंने ओर कोई दुःख देता हो तो उसे अनुमोदन भी दिया हुआ उ देश निष्फल गया । जो एक नहीं करना चाहिये । साधनाके लिये पंच महाआश्चर्यजनक घाना ग्री। व्रता का आजीवन धारण करना चाहिये । तभी साधना सफल होती है। भगवान जा अपापा नगरी में पधारे तब सोमिल नामक सृद्धिशाली ब्राह्मण के यहां यश प्रथम व्रत धारण करनेवालों को चाहिये कि चल रहा था। जिसमें अनेक पंडित और विद्वान वह इस व्रतके पालनमें यह सावधानी रखे। सभी ब्राह्मण आये थे उनमें इन्द्रभूति आदि ग्यारह भूत प्राणियोंको हिंसाका यावज्जीवन त्याग का प्रमुख पंडित अग्ने विशाल सिष्य परिवार के संकल्प करे। वह यह निश्चय करे कि स्थूल, साथ उपस्थित है ! जब भगवान महावीर पधारे सूक्ष्म, स्थावर या जगम किसी भी प्राणी की तो लोक बहुत डी संख्यामें उनके दर्शनके मन, वचन, काया से में हिंसा नहीं करूंगा। लिये तथा उपदेश सुनने के लिये जाने लगी। दूसरेसे नहीं करवाऊंगा तथा कोई करे। उसका अब यश देखने पाई हुई जनताका जाते देखा तो समर्थन नहीं करूंगा। उसे अनुमति नहीं दूंगा। धशमे भाग लेने आये हुये प्रमुख ग्यारह पंडितों मैं पाप कर्म से निवृत होता है, उसकी में निदा का बुरा लगा र वे अपने पांडित्य से महावीर करता हूं, गहां करता हूँ और इस पापकर्म से पराजित करने के लिये वहां पहुचे। में मुक्त होता है। जब महावीर की सौम्य, गभीर, कितु तेजस्वी साधक किसी भी जतुको क्लेश न हो इस और ध्यानमग्न : खमुद्रा देखी तो उनका कुछ प्रकार सावधानीपूर्वक चले। वह आत्मशोधन क्रोध शांत हुअ और जब भगवानने ध्यान कर मन को पापयुक्त, सदोष, सक्रिय, कमबधन R ush [ १७४
SR No.537861
Book TitleJain 1963 Book 61 Bhagwan Mahavir Janma Kalyanak Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Devchand Sheth
PublisherJain Office Bhavnagar
Publication Year1963
Total Pages46
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Weekly, & India
File Size7 MB
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