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________________ જૈનહિતેચ્છુ. अथवा अप्रकट रूपमें लाभ पहुँचता हो क्या कोई यह कहने को तैयार है कि यदि अन्य किसी उपायसे इन अभियोगों का अंत किया जासके जो दोनो पक्षवालोंको स्वीकृत हो तो वह हमारे लिए अभिनन्दनीय न होगा ?, तब फिर क्या यह उचित था कि इसके लिये जो उद्योग किया गया उसका इस प्रकार विरोध किया जाय ? प्रिय प्रतिनिधिगण, क्षमा कीजिए । मेरी सम्मतिमें भी श्रीयुत वाडीलालजीने जो उपाय बताया है वह उचित नहीं जान पड़ता। मेरा अनुभव है कि अभियोग लडनेवालोंको धर्म व नीतिका उपदेश करनेसे - Councels of perfection देने से — वे लड़ना नहीं छोड़ते । मैं यह मानने के लिए तैयार नहीं हूं कि प्रत्येक दशामें न्यायालयद्वारा निर्णय कराने की अपेक्षा माध्यस्थों द्वारा निर्णय कराना उत्तम है, और मेरे विचार में शिखरजी संबन्धी इन अभियोगोंका निर्णय न्यायालयद्वारा अथवा मध्यस्थोंद्वारा कराने में अधिक अंतर नहीं । परन्तु इसका अर्थ आप यह न समझें कि मैं न्यायालय में प्रिवी कौंसिल तक लड़ते रहने की सम्मति दे रहा हूं । मेरे विचार में इन अभियोगोंका निर्णय करनेका सबसे उत्तम उपाय यह होगा कि इनका आपसहीमें निर्णयद्वारा - Amicable settlement द्वारा—अंत किया जाय। इस प्रकारका निर्णय दोनों बाजुओं की सम्मतिके साथ होनेके कारण दोनोंको संतोषदायक होगा । इसके लिए यह आवश्यक हैं कि दोनों ओरकी सम्मतियोंका परस्पर में परिवर्तन कराया जाय । हमें चाहिए कि हम एक ऐसी प्रभावशाली कमेटी नियुक्त करें जिसके कुछ सभासद दोनों संप्रदायोंके निष्पक्ष व्यक्ति हों तथा विश्वसनीय अन्यमती भी सभासद हों । यह कमेटी दोनों
SR No.537767
Book TitleJain Hitechhu 1916 09 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVadilal Motilal Shah
PublisherVadilal Motilal Shah
Publication Year1916
Total Pages100
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Hitechhu, & India
File Size12 MB
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