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________________ ३५ आपन तो समजे नहिं, वृथा गया अवतार. पढी गुनी ब्राह्मन भयें, कीर्त्ति भई संसार; वस्तुकी समजन नहिं, ज्युं खर चंदन भार. पढत गुनत रोगी भयें, बढया बहुत अभिमान; भीतर भडका जग्तका, घडी न पडती शान. (३) भणीगणीने 'पाठक' - - उपदेशक बन्या अने आखा जगतने उपदेश करवा लाग्या पण पोते तो हजी कांइ पण समज्या नहि; तो एवा उपदेशको अवतार नकामो ज गयो समजवो. (४) भणीगणीने ' ब्राह्मण '--' ब्रह्मज्ञ' - पंडीतजी बन्या, अने संसारमां कीर्ति मेळवी के फलाणा भाइ तो म्होटा काशीना पंडीत थया अगर फलाणा तो म्होटा 'आचार्य' थया के फलाणा तो महापुरुष पंडीतराज ' थया; पण 'वस्तु' नी समजण हजी पडी नथी अर्थात् 'सत्' नुं पीछान हजी एने थयुं नथी- शास्त्रोना अक्षर गोखी मारवा छतां अने लांबा लांबा टीका —टब्बा वांचवा छतां हजी ए शब्दमां छुपायलं गुप्त रहस्य ते शोधी शक्यो नथी - माटे ज कबीरजी कहे छे के ! हे खर, हे गद्धा ! आ विद्या रुपी चंदननो भार व्हारा मातेला शरीर उपर तुं भरे छे तेथी रहने शो लाभ थवानो छे ? तुं व्हेनी सुगंध तो लइ शकतो नथी; तो पण कदाच बीजानुं वैतरुं करवा माटे - बीजाना माटे आ भार उपाडतो होश ! (५) बहु बहु भण्या तो शुं मळयुं ? मात्र अभिमान रूपी दरद ! एनुं सूक्ष्म शरीर तपासो तो जणाशे के त्यहां तो जगतना पदार्थोनी इच्छा रूपी अग्नि प्रज्वलीत होय छे. स्त्री नामथी ओळखातो स्थूल पदार्थ छडयो हशे पण ना सूक्ष्म शरीरमां खीनी लालसा तो
SR No.537763
Book TitleJain Hitechhu 1911 Book 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVadilal Motilal Shah
PublisherVadilal Motilal Shah
Publication Year1911
Total Pages338
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Hitechhu, & India
File Size21 MB
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