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सबी रसायन देखीया, हरिसा एक न होय; रति एक घटमें संचरे, सब तन कंचन होय.
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(१२) कवीरजी कहे छे के, म्हें बधां रसायण जोयां-तपास्याअजमाव्यां; पण हरि नामना रसायण जेवू तो एक पण रसायण म्हारा जोवामां आव्यु नहि. वैद्यो गमे तेटलं रसायण खवरावे तेथी काइ शरीरनो एक वाळ पण सोनानो बनी जतो नथी; पण परमेश्वर रुपी रसायणनी एक रति मात्र जो 'घट'मां (स्थूल शरीरमां नहि पण सूक्ष्म शरीरमा) संचरवा पामे तो ते आखू शरीर कंचनमय बनी जाय छे. ( सरखावो तीर्थकरना त्रीगडा गढनी कल्पना.) जेनें मन हरि साथे ज लागेलं छे, जे आखा विश्वने हरितुं अंग समजे छे अने जे पोते हरिनी भक्ति अथवा विश्वसेवा माटे ज जन्म मळ्यो माने छे तेवी मान्यतावाला माणसवें कार्मण शरीर घणुंज प्रकाशीत थाय छे.
जैनधर्ममां कहेली लोक भावना' जे बराबर समज्यो के ( भूगोळ-खगोळ तरीके नहि पण अध्यात्म तरीके) ते माणसत्रं कार्मण शरीर अति प्रकाशीत थाय एमां पूछवुज शुं होय ?