________________
ना कछु किया, ना कर मका, ना करने जोग शरीर; जो कुछ किया इरिने किया, ताते भये कबीर. ११
(११) कबीरजी कहे छे के, हुं आजे जे छु ते सर्व हरिनो प्रताप छे; म्हें काइ कयु नथी, हुं करी शक्यो नथी अने करवा जेवू म्हार शरीर पण नथी. पण हरिए आ शरीरद्वारा जे कांइ कयु होय रहेमा आ शरीर शानो गर्व करे ? म्हें कोइर्नु कांइ काम कयु होय तो ते हरिनी प्रेरणाथी आ हाथ-पग चाल्या अने काम थयु, हेमां हाथ-पपने शानो यश ? कोइने उपदेश दीधो ते हरिए प्रेरणा करी से मुजब जीभ बोली गइ; एमां जीभडी नकामी शाने फूलाय ? कबीर महात्मा कहेवायो पण ते तो एक खोखुं छे, महात्मा तो प्रभु छे, के जे कबीरना शरीरद्वारा महात्मापणानो खेल भजवीने जगतने शीखापण आपे छे. (वाहरे 'त्याग' वृत्ति बाह ! दोलत वगेरे तो त्यज्यु ते त्यज्युं पण कामनो यश पण त्यज्यो,-अरे 'हूं'ने ज समूळगुं त्यज्युं ! म्हारो कबीर गुरु तो भगवानथी एकरुप थइने कहे छे के "ते तो भगमने कयु !" पण भला कबीर ! आवो महंत थइने जूटुं का बोले छे ? तुं अने त्हारो प्रभु बे एकरूप हो, तो त्हारा प्रभुए करेलं ते हारु करेलु केम न कहेवाय ?)
N
:
..
आनुंज नाम 'कर्म योग छे कर्म एटले कर्तव्य कर्म-ज कांड दुनीआमां पोताने करवा जे जणाय ते विश्वहितार्थे करीने दर थइ ज, फळ इच्छवू नहि अ ळ पोतानी पेदाश छे एम पण न मान, ए कर्मना वळगाटथी दूर रहेबानो एकनो एक ज रस्तो छे. एने कर्म केम करी वळगे?