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________________ जब तूं आयो जन्तमें, लोक हस्या तूं रोय; ऐसी करनी मती करो, के पीछे हसे कोय. ० महाराज, हमे कहोछो के हुं आ करुं ने हं ते करूं ने हुं फलाणु करूं; पण भला माणस!आज सुधीमां मुंशु कयु ते जरा हैयं उघाडीने जुओने ! वायदानो व्यापार (मट्टो) छाडी रोकडीओ न करोने ! हो जो आज सुधीमां कांइ सारं काम न करी शक्या हो तो हवे पछी पण शु उकाळवाना हता ? ( कबीरजी तो गुरुना गुरु पनीने थाबखा लगाव्या ज जाय छे, रखेने कोइ नबळो आ चावखाना मारथी चीतामां जाय !) (१०) हे भोळा ! ज्यहारे तुं आ जगतमा आन्यो अर्थात् जनम्यो त्यहारे तुं तो रोतो हतो अने लोको हसता हता ! रहने एका विचारथी रडQ आवतुं हतुं के आ उत्तमोत्तम ओजार रुप मनुष्य खोळीउं पामुं तो छ, पण एनो सारो उपयोग करीने शाबाशी नहीं मेळवाय तो बहु दुःखी थQ पडशे. ए विचारथी तुं रोतो हतो. अने लोको एम धारीने हसता हता के, आपणे तो आ दुनीआनी हवा लागवाथी स्वार्थी बनी बेठा पण आ नवो-ताजो जीव आवे छे ते निर्मळ रहीने जगसेवा बजावशे, तेथी आपणुं पण काम थशे ! माटे हवे हे भाइ ! एवी करणी कदी न करीश के जेथी तहारा मृत्युने लीधे लोको एम बोलवा प्रेराय के " साहं थयु के आ मुओ !" त्हारा, मरणथी खोट पडी एम लोकोने जणाय तो ज सारं जीवg सफळ हे. ( अहीं पण शुद्ध 'कर्मयोग'नो उपदेश मळकी रयो . बाहरे कर्मयोगी कबीरजी!)
SR No.537763
Book TitleJain Hitechhu 1911 Book 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVadilal Motilal Shah
PublisherVadilal Motilal Shah
Publication Year1911
Total Pages338
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Hitechhu, & India
File Size21 MB
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