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सुराका तो दल नहिं, चंदनका वन नाहिं; सब समुद्र मोति नहि, युं हरिजन जग माहि. चार चिन्ह हरिभक्तके, प्रगट दिखाई देत;
दया धर्म आधिनता, पर दुःखको हर लेत. संत कांइ रस्तामां आवडता नथी, ए तो समुद्रनी पार छे. एटले के जेम विलायत के एवो कोइ देश जोवो होय तो समुद्र ओळंगवानी तकलीफ सहवी पडे छे, त्य्हारे जोवाय छे. तेम घणी तकलीफे कोइ रडयोखडयो संत मळी आवे छे. जेम के, गुप्त पांखोवाला गरुटपक्षी तो कोइक ज होय छे, पण देखाती पांखवाळा पक्षीओ हजारोक्रोडो होय छे. पण ते पक्षीओ काइ आखो समुद्र तरी शके नहि.
(४) शूरवीर पुरुषनां कांइ टोटोनां होता नथी. लश्करमा पण थोडा ज पुरुषो खरेखरा शूरा होय छे, जेमनी हाजरीथी वीजा सैनीकोने शुरातन च्हडी आववाथी लडे छे. वळी चंदन एटल सुस्क्डनां झाडनां कांइ वन होता नथी; अने मोती कांइ बधा समुद्रमां पाकतां नथी; तेमज हरिजन अथवा साचा संत तो जगमां ठेरठेर नथी मळता.
(५) हरिभक्तने ओळखवा माटे सामान्य रीते चार चिन्हो याद राखवा. (१) दया (२)धर्म अथवा कर्त्तव्यपरायणता (३) नम्रता (४) परायां दुःखो दूर करवानी तत्परता. आ गुणो वडे 'संत' ओळखी शकाय. हवे दांचनाराओए पोतपोताना गुरुओमां आ चार गुणो शोधी कहाडवा माटे खुणा-खांचरा जेटला हुंडाय तेटला हुंढी जोवा अने पछी गुरु खरे ज 'संत' छे एम खात्री थाय तो त्हेने पोतानो मालीक मानी सर्वस्व अर्पण करवू; अने जो दया खरेखगे महोप, पोतानी फरक बनावमामा भममान दशान होप, ममतामी