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________________ १४ हरिजन ऐसा चाहिये, जैसा फोफल भंग: आप करावे ठुकरा, और पर मुख राखे रंग. तन ताप जीनको नहि, न माया मोह संतापः हरख शोक आशा नहि, सो हरिजन हर आप. चंदन जैसा संत है, सर्प जैसा संसार: अंग ही से लपटा रहे, छांडे नहीं बिकार. एक घडी आधी घडी, आधी उनमें आध; संगत करिये 'संत' की, तो कटे कोट अपराध. ११ १७ (८) हरिजन तो एवो होय के जाने फोफल अथवा भागेली सोपारी जोइ ल्यो ! पोताना टुकडा थशे ते सहन करीने पण बीजाने फायदो करशे. 'जग- सेवा' एज एनो 'धर्म'. होय छे. (९) हरिजन अने हरि वे एक ज छे, बेमां भिन्नभाव नथी: पण क्हारे के रहेने शरीरनो ताप एटले पीडा लागी शके जनहि एवो तल्लीन भाव पैदा थयो होय अने माया - मोहनो पण संताप दूर थयो होय, अने हर्ष --शोक-- आशा रही न होय. (१०) 'संत' अने 'संसारी' ए वे बच्चे तफावत बतावे छे के, संत तो चंदन समान छे अने संसारी जन सर्प जेवा छे. चंदन पोते घसाइने पण परने शान्ति आपे छे. सर्प पोताने दूध पानारने पण करडे छे. बस एटलो ज तफावत. बाकी कांइ मेलां लूगडांनो के सरळतारहीत व्हेरानो के एवो कोइ बाह्य तफावत नथी. (११) अने एवा साचा 'संत' नी सोबत एक घडीने माटे ज मळे- अरे अडधी के पा घडी ज मळे तो पण एमी संगतथी करोडो पाप नाश पामे.
SR No.537763
Book TitleJain Hitechhu 1911 Book 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVadilal Motilal Shah
PublisherVadilal Motilal Shah
Publication Year1911
Total Pages338
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Hitechhu, & India
File Size21 MB
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