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मान नहि अपमान नहि, ऐसे शितल संत; भवसागर उतर पडे, तोडे जमके दंत.
आशा तजे माया तजे, मोह तजे, अरु मान; हर्ष शोक निंदा तजे, कहे कवीर संत जान.
संत खरे सोही कहो, जीने कनक कामीनी त्याग; और कछु इच्छा नहिं, निशदिन रहे विराग.
अथवा सुख-दुःखमां मननी अडोलवृत्ति अने शीलः आ पांच, 'साधु'नां लक्षण समजजो. ( कबीरजीए आपेला आ 'कसोटीना पथ्थर' उपर पोतपोताना गुरुने घसी जोवाथी दरेक माणसने खात्री थशे के ए ते साचु सोनुं छे के कथीर छे !) . ___ (२) जे पुरुषने मान-अपमाननी लेश मात्र असर थनी नथी एवी शीतलता प्राप्त थइ छे, ते ज पुरुष भवसागर तरी शके अने जमना दांतने तोडी शके; अर्थात् फरी मरवानी जरुर हेने रहे नहि. ___ (३) कबीरजी कहे छे के, जे पुरुष आशा (इच्छा) ने तजे, मायाने पण तजे, मानने पण तजे अने हर्ष-शोक नामनी लागणीओ साथे निंदाने पण तीलांजली आपे एने ज तुं 'संत' जाणजे.
(४) जेणे कंचन अने कामोनी त्यजी छे, त्यजी छे एटलं ज नहि पण ते ते चीजोनी इच्छाने पण त्यजी छे अर्थात् बाह्य तेमन अभ्यंतर त्याग को छे अने परमात्मा साथे ज जेनो तार लागेलो छे रहेने 'संत' कहेवो.